एक था वेद

Brajesh Rajput / बात करने मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो नहीं थी, जैसी अब है तेरी महफिल कभी ऐसी तो ना थी। अपने देास्त वेद व्रत गिरी पर कुछ लिखने बैठा हूं और बहादुर शाह जफर की लिखी और मेहदी हसन की गायी ये गजल बार बार याद आ रही है। सच है अपने वालों के बारे में किसी को बताना या फिर उसके बारे में लिखना कितना मुश्किल होता है।

और वो भी वेद सरीखे दोस्त के बारे में उसके जाने के बाद बात करना बहुत ही तकलीफदेह हो रहा है। समझ नहीं आ रहा वेद पर कहां से लिखूं कैसे बताउं कि उससे पहली दफा करीब पंद्रह साल पहले दैनिक जागरण दिल्ली के दफतर में ही मिला था। वहां मेरी नयी नौकरी लगी थी उपसंपादक के पद पर। वेद भी कुछ महीनों बाद आ गया भोपाल से पत्रकारिता का कोर्स पूरा कर। मगर हमारे समाचार संपादक को वेद का काम तो नहीं मगर रवैया पसंद नहीं आया। वेद दफतर के सिवक्योरिटी गार्ड से लेकर हम दोस्तों और जाहिर है समाचार सपंादक से भी एक ही दोस्ताना अंदाज में बातें करता था। जिसको लेकर उन्होनें वेद से अपना रवैया सुधारने को कहा भी मगर वेद तो बने ही दूसरी माटी के थे। अखबार की अपनी पहली नौकरी में ही संपादक की बेजा बात नहीं मानी और चल पडे नौकरी छोड कर। 

बाद में पता चला वेद इंदौर के किसी अखबार मे है। तब तक वो अपनी सहपाठी इंदौर की रहने वाली अल्पना त्रिवेदी से ’ाादी रचा चुके थे। मगर इंदौर भी उनकेा ज्यादा जमा नही। संगीत का चैनल ईटीसी समाचार लेकर आ रहा था। वेद ने उस समाचार चैनल में नौकरी कर ली और इंदौर से भोपाल आ गये । तब तक मैं भी दिल्ली की गलियंें छोड कर भोपाल का रूख कर चुका था। सहारा टीवी तब समाचार के बुलेटिन दिखाता था। जिसके लिये मैं भोपाल से खबरें भेजता था। वेद और हम मिलकर कहानियां प्लान करते और उसे करते। मगर मैं जिस तरीके से सहारा के लिये खबरें करता था वेद को उतनी आसानी नहीं थी। 

ईटीसी का मेनेजमेंट ने उसे कइz तरह से उलझा रखा था। मगर उसे इसकी परवाह नहीं थी। उसका बेलौस बिंदासपन अपने उफान पर था। हम भोपाल के साथी उसे उसकी गालियों के चलते याद करते जो वो धाराप्रवाह तरीके से दिया करता था। भेापाल के पत्रकारों की परंपरा में ये नयी ’ाुरूआत थी। गालियां वो सभी को देता था वो भी भारीभरकम यूपी की। मगर उसकी गालियों के चलते कभी उसकी लडाई या कहासुनी हुयी हो ये कभी सुना नहीं। उसकी गालियों में मिठास और अपनापन लोगों को मिलता था। हम उसे दुर्वासा मुनि का कलयुगी अवतार कहते थे। वो दुर्वासा जो भगवान विप्णु को भी सीने पर लात मार सकते थे। हमें उसका ये गालीगलौच का रवैया अचंभे भरा जरूर लगता था मगर उसकी सच्चाई के आगे हम सब पानी भरते थे। वो धडधडाते आता और हम दोस्तों को जी भरकर गालियां देता जिसे हम हंसते हंसते सुनते। 

यदि इस बीच में हम उसे भी भला बुरा कहते तो वो उसने ’ाायद ही कभी बुरा माना हो। गालियां देने के बाद हमसे चाय या सिगरेट पिलाने की अधिकार पूर्वक मांग जरूर करता था। इस बीच ईटीसी अपनी गडबडियों के चलते बंद हो गया और वेद पर ढेर सारी उधारी छोड गया। जिसे वेद बहुत दिनों तक लोगों को चुकाता रहा। वेद फिर सडक पर था मगर इस बीच उसने अंंगzेजी की पत्रिका सहारा और द वीक के लिये धाराप्रवाह लिखा और उम्मीद की कि ये पत्रिकायें उसे संवाददाता रख लेंगी मगर उसे निरा’ाा ही हाथ लगी। वेद तो वेद था इन मु’िकलों में भी हमने कभी उसके चेहरे पर कभी तनाव नहीं देखा। हां वो सिगरेट जरूर ज्यादा पीने लगा था। इस बीच में उसके साथ भोपाल की माखनलाल पत्रकारिता वि’वविघालय में पढे साथी सरकारी नौकरियों में लग गये। जिनसे वो मिलता तो मगर मदद कभी नहीं मांगता। पत्नी इंदौर में थी और वो भोपाल में। इस बीच वेद का परिवार बढा और बेटा पार्थ आया। कहते हैं मु’िकलें इतनी पडी की आसान हो गयीं। इन खाली दिनों में वेद काम तला’ाता रहा और उसकी तला’ा दैनिक भास्कर जा कर पूरी हुयी। 

भोपाल के इस सबसे बडे अखबार में वेद की मेहनत रंग लायी। वेद की खबरों के तीखे तेवर से नेता और अफसर सभी चिंतित रहते थे। संपादक एन के सिंह का वो खास रिपोर्टर हो गया। रात दिन काम और किसी भी प्रकार के समझौतों से दूर रहने के कारण वेद चर्चित हो गया। राजनीतिक सर्किल में वेद का नाम पहचाना जाने लगा। मगर वेद के पास किसी एक जगह लग कर काम करने की आदत ही नहीं थी। भास्कर की रोजमर्रा की रिपोर्टिग और अंदर की उथल पुथल से वेद उब गया और नौकरी छोडने की ठान ली। हम दोस्तों ने मना किया। उस दौर के संपादक श्रवण गर्ग ने भी उसे समझाया मगर वेद को जो करना है तो करना है। इस बार उसके अंदर का प्रयोगधर्मी पत्रकार फिर जाग उठा। और वो वेव साइट माय न्यूज डाट इन लेकर आ गया। मध्यप्रदे’ा की ये पहली सिटीजन जर्नलिस्ट की अवधारणा वाली साइट थी। इस साइट पर कोई भी लिख सकता था समाचार और विचार। अभिव्यक्ति के तमाम तरह  के खतरों के बाद भी उसने सभी को लिखने की छूट दी। उसकी साइट पर दे’ा विदे’ा से समाचार आने लगे। जब वो बताता कि कितनी दूर से किसी ने ये समाचार लिखा है तो उसकी भोली मुस्कान देखते ही बनती थी मगर हम स्वार्थी देास्त उसे तुरंत जमीन पर ला देते थे। ये पूछकर कि साइट से कमाई कितनी हो रही है। 

मगर उसकी मेहनत रंग लायी वेद की साइट चल निकली। हिटस के पैमाने पर इस न्यूज साइट की तरक्की होती रही। वेद की साइट के दाम लगने लगे। पैसा ही सब कुछ मानने वाले हम जैसे दोस्तों ने फिर उसे सलाह दी साइट बेचने की मगर वो नहीं माना और माय न्यूज के अलावा मेरी खबर डाट काम के नाम से हिन्दी की साइट ’ाुरू कर दी। इस बीच में अल्पना इंदौर से भोपाल के कालेज में असिस्टेंट प्रोफेसर बनकर आ गयी थी और वेद की गृहस्थी की गाडी फिर ठीक चल पडी। मगर सीधे चलना वेद को मंजूर ही नही था। वेद दिल्ली जा बसा। अपने दोस्त संजय सलिल के साथ साइट का कारोबार करने करीब तीन साल वो वहां रहा। और एक दिन जैसे गया था वैसे ही अचानक फिर भोपाल वापस आ गया। क्या हुआ क्यों वो आया किसी को बताया नहीं और फिर नये सिरे से साइट का काम करना ’ाुरू कर दिया। मनोज ’ार्मा के दफतर के पास ही उसने अपनी कंपनी मीडिया मिटं का नया दफतर खोला। हम सारे दोस्त वेद की तरफ से बेफिक्z हो गये। 

उसे ताने जरूर मारते कि हम नौक्री ही करते रहे और वो कंपनी खोलकर हम सबसे आगे निकल गया। कुछ महीनों बाद फिर पता चला कि वेद संघर्पाें में है। कंपनी खोल तो ली है मगर काम नहीं आ रहा। वेद का खुददार रवैया यहंा फिर आडे आ गया। काम के लिये हाथ नहीं फैलाये जो काम चल कर आया वही किया और वहीं करेंगे कि कसम। थक हार कर हम कुछ दोस्तों ने उससे जिद की और हम जैसा कहेंगे वैसा वो करेगा कि ’ार्त पर उसके लिये काम तला’ाना ’ाुरू किया। थोडा बहुत काम मिला भी मगर हम समझ गये वेद बदलेगा नहीं। वो उन कुछ लोगों में से था जो अपनी खुददारी को गिरवी रखना नहीं जानते थे। काम मिले तो नही मिले तो। इस दीवाली के दूसरे दिन हम सपरिवार उसके घर गये। जहंा उसने अपने पिता के पास एटा जाने की बात कही। मैंने उसे रोका भी कि दीवाली के इन दिनों का उपयोग काम कराने वाले लोगों से मिलने जुलने मिठाई गिफट देने में करें मगर वेद ने एक झटके में इस प्रस्ताव को खारिज किया और चुपचाप चल दिया दिल्ली। जहंा से 17 की दोपहर खबर आयी कि वेद हम सभी को हतप्रभ छोडकर बहुत दूर चला गया। ईमानदारी खुददारी और सच्चाई क्या होती है ये वेद को देखकर याद आता था। अब ये सारी बातें कौन याद दिलायेगा। 

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