विजय मनोहर तिवारी/ किसी ने कहा औघड़ था वह। कोई बोला बिंदास। किसी ने जुझारू बताया तो किसी ने प्रयोगधर्मी। कुछ नया करने की बैचेनी से भरा एक पत्रकार। वेदव्रत गिरि। उम्र सिर्फ 43 साल। आखिरी सांस लिए दो दिन गुजर गए हैं। उत्तरप्रदेश में एटा जिले के किसी गुमनाम से गांव के अंधेरे श्मशान में उसकी राख ठंडा रही होगी अब तक। एक हादसे में जान गई उसकी। खड़े ट्रक में कार जा घुसी।
हर साल तीन लाख लोग देश की सड़कों पर दम तोड़ते हैं। एक छोटे-मोटे शहर की आबादी होती है इतनी। हर साल सड़कों से ही साफ हो जाती है। अखबार के पन्नों पर शायद ही कोई दिन गुजरता हो जब हादसा सुर्खियों से गायब हो। ढोल, गंवार, शूद्र, पशुओं के इस मुल्क में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। शिवरात्रि के दिन इंदौर से भोपाल के लिए रवींद्र शाह कार में बैठे थे। बीच रास्ते में लाश बाहर निकली। दिवाली के दो रोज बाद अलीगढ़ डेटलाइन की खबर में वेदव्रत, तुम आ गए!
शोकसभा में किसी ने कहा, औघड़ था। वेद तुमसे मेरा सवाल है। एटा के गांव से माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि में औघड़ बनने के लिए आए थे तुम? ऐसा ही था तो हिमालय पास था भाई। औघड़ वहां जाकर बनते। हम यहां सिंहस्थ में आकर तुम पर स्टोरी लिख लेते। तुम्हें यह पता नहीं था कि पत्रकारिता वो जमीन नहीं है, जहां औघड़ी चले।
अपनी पसंद से घर बसाया था तुमने। अल्पना साथ ही पढ़ती थीं श्रीमान्। दो मासूम और काबिल बच्चे हैं भाई! इनके रहते आप औघड़ होने का दुस्साहस कर कैसे सकते थे? तुम्हारे काम करने के मनमौजी अंदाज पर जो लोग लिख रहे हैं, उसे पढ़कर तुम्हारी कॉलर पकड़कर झिंझोड़ डालना चाहता हूं मैं। आप पत्रकारिता में आए थे महाराज। मन की मौज नहीं चलती इधर। जब चलती थी वो जमाने हमने सिर्फ सुने हैं। आप थे किस दुनिया मे?
कुछ नया करने की बैचेनी उम्दा फितरत है। मगर किस कीमत पर? खुद का घर फूंककर? ये कबीर का कॉपीराइट है दोस्त! हम जैसे दोस्तों से ही कुछ सीख लेते। घर-बार लेकर बैठे हैं। सबके सब प्रेक्टिकल हैं। प्रयोग सब करना चाहते हैं। कम से कम कहते तो हैं। मगर ये आसान नहीं है प्यारे। कम्फर्ट झोन को लांघने की जरूरत क्या थी तुम्हें? क्या कर लिया नागरिक पत्रकारिता का तमगा टांगकर?
सुना कि तुम कई दफा गिरे, टकराए, जख्मी हुए। बेतहाशा गाड़ी चलाते थे। बिंदास थे। पढ़े-लिखे तुम। हादसे की खबरें लिखी भी होंगी। पढ़ते तो रोज ही होगे। सिगरेट पीते हुए बेफिक्र ड्राइविंग के दौरान कभी नहीं लगा कि किसी सिंगल कॉलम खबर में अपन भी हो सकते हैं? ऐसी किसी खबर को पढ़ते हुए वाराणसी में याद कर रहे अपने बच्चे की शक्ल जेहन में नहीं उभरती थी तुम्हारे? अरे, किसी ज्योतिषी को अपनी कुंडली दिखा देते। कम्बख्त पता तो चलता थ कि कौन सा ग्रह तुम्हें तकलीफों की तरफ धकेल रहा था?
जैसे बड़ी खूबी हो, कुछ इस अंदाज में लिखा जा रहा है कि तुम जैसे थे, वैसे ही रहे। बिल्कुल बदले नहीं। माफ कीजिएगा यह बेअदबी है हुजूर। कैसे आप अपने अडिय़लपन को अपनी शान समझ सकते हैं? फारसी की कहावत है-बाअदब बानसीब, बेअदब बेनसीब।
तुम बेरहम थे वेद! तुम बेअदब थे! तुम्हारी बेअदबी है अल्पना से। तुम्हारी बेअदबी है बच्चों से। तुम्हारी बेअदबी है हमसे। सब बेकसूर हैं हम। कुसूरवार हो तुम। हम सबके कुसूरवार। तुम ऐसे कैसे हो सकते थे? मुझे जवाब दो।