भोपाल। ईओडब्ल्यू ने आज दिग्विजय सिंह सरकार में उद्योग मंत्री रहे नरेन्द्र नाहटा सहित 10 लोगों के खिलाफ आज विशेष न्यायालय में चालान पेश किया। यह चालान बहुचर्चित 719 करोड़ के MPSIDC घोटाले के मामले में पेश किया गया।
खबर मिली है कि ईओडब्ल्यू ने जांच के बाद आज इस बहुचर्चित मामले में चालान पेश कर दिया। सनद रहे कि इस मामले की सीबीआई जांच की मांग भी की गई थी। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने भी इस मामले को लेकर टिप्पणी की थी कि सरकार इसे लेकर गंभीर है। यह मामला दिग्विजय सिंह सरकार के खिलाफ एक बड़ा मामला बताया जाता है।
क्या था MPSIDC घोटाला
मध्यप्रदेश राज्य औद्योगिक केंद्र विकास निगम सूत्रों के मुताबिक सीआईआई से जुड़े उद्योगपति खासतौर से इस लूट में भागीदार रहे हैं। इनके मुताबिक , इस पूरे घोटाले का सूत्रधार और निगम के तत्कालीन महाप्रबंधक एम.पी. राजन स्वयं करीब चार साल तक सीआईआई मध्य प्रदेश के अध्यक्ष रहे। उस दौरान उन्होंने सीआईआई से जुड़े उद्योगपतियों को सभी नियमों को ताक पर रखकर पैसे दिए दिए गए। सीआईआई मध्य प्रदेश से जुड़े लोग ही निगम का करोड़ों रुपया दबाए बैठे हैं। राजन नौकरी छोड़ चुके हैं और पेंशन ले रहे हैं।
सीआईआई के सदस्य- एनबी ग्रुप , स्टील ट्यूबस ऑफ इंडिया , अल्पाइन ग्रुप , इशार ग्रुप , सोम ग्रुप , जमना ऑटो , सिद्धार्थ ट्यूब , गिल्ट पैक लि. आदि उद्योगों को राजन ने सबसे ज्यादा फायदा पहुंचाया था। इस घोटाले की ओर मीडिया का ध्यान न जाए इसके लिए सीआईआई ने मध्य प्रदेश के कुछ पत्रकारों को लंदन का दौरा भी करवाया था। इनका खर्चा सीआईआई के एक सदस्य ने ही उठाया था। उस सदस्य को अभी निगम को करीब 33 करोड़ रुपये लौटाने हैं लेकिन वह नहीं दे रहा है।
निगम का रिकॉर्ड इस बात का गवाह है कि किस तरह मनमाने ढंग से पैसा बांटा गया। इस संवाददाता के पास एक ऐसे आदेश की प्रति भी मौजूद है , जिसमें तत्कालीन प्रबंध संचालक ने कर्ज में लिए गए पैसे की बिना मांगे उद्योगपतियों को बांट दिया। कई तो ऐसे मामले है जिनमें पुराना पैसा वापस न मिलने पर भी आगे इंटर कॉरपोरेट डिपॉजिट दिया जाता रहा। यह काम एस.आर. मोहंती के प्रबंध संचालक बनने तक जारी रहा।
सूत्रों के मुताबिक 14 मई 1998 को संचालक मंडल द्वारा प्रबंध संचालक को ऋण लेने और उसे आगे उधार देने का फैसला ही पूरी तरह नियमों के खिलाफ था। उन्हें ऐसा करने का अधिकार ही नहीं था लेकिन उद्योगपतियों को सरकारी संरक्षण के कारण ऐसा हुआ। सरकार जानबूझ कर आंख बंद किए रही। आज निगम की हालत खस्ता है। वह करीब 600 करोड़ के घाटे में है। जिन लोगों से पैसा उधार लिया गया था , वे अब निगम पर मुकदमे कर रहे हैं। देश की विभिन्न संस्थाओं के कर्मचारियों के प्रॉविडेंट फंड , ऑर्गनाइजेशन , पेंशन फंड , छोटे निवेशकों और बैंक आदि से बॉन्ड के तहत निगम ने करीब 81 करोड़ रुपये लिए थे। इनको वापस चुकाने की मियाद पूरी हो चुकी थी। फलस्वरूप कई मुकदमे दर्ज कराए गए।
उमा सरकार ने नहीं की कार्रवाई
उमाभारती सरकार इस मामले को लेकर दोराहे पर खड़ी रही। एक ओर उसे करीब 719 करोड़ उद्योगपतियों से वसूलने थे तो दूसरी ओर वह चाहती थी कि प्रदेश का औद्योगीकरण हो। अरबों रुपये दबाए बैठे उद्योगपति वसूली के लिए हो रही सख्ती को अपना उत्पीड़न मानकर विरोध कर रहे थे। चारों ओर से इन डिफॉल्टरों को बचाने की कोशिशें हो रही थीं। इसके चलते वसूली मुहिम चलाने वाले अफसर परेशान रहे।
यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि जो लोग बड़े डिफॉल्टर हैं , वे दिग्विजय सरकार के काफी करीब रहे हैं। एक सज्जन तो केंद्र में सत्तारूढ़ दल के राज्यसभा सदस्य भी रहे। सबसे ज्यादा पैसा करीब 117 करोड़ उन्हें ही वापस करना है। वही वसूली की इस मुहिम का विरोध कर रहे थे। मगर उमा सरकार इस घोटाले की जांच से क्यों बचती रही। यह एक यक्ष प्रश्न है।