देश के दोनों प्रमुख राजनीतिक दल इन दिनों “आओ प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री खेलें” जैसे बच्चों के खेल से नागरिकों को बहलाने की कोशिश कर रहे हैं| दोनों तरफ से नाम उछाले जा रहे हैं|जिनके उछाले जा रहे हैं,वे कुछ बोल नहीं रहे हैं| चाहे राहुल गाँधी हो या नरेंद्र मोदी या इस लिस्ट में खुद को अपने आप शामिल माननेवाले कोई और| एनडीए और यूपीए के पिछले कार्यकालों को देख लें और यह समझ लें कि अब आग का दरिया और चौड़ा होगा और इसमें डूबने के बाद किस किसका सहारा लेना होगा | तब चमक आएगी |
बिल्ली के भाग्य से छींके तो मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में टूटा करते हैं, केंद्र में प्रधानमंत्री कोई ऐसे ही नहीं बन जाता |पिछले चुनाव के “वुड बी” अब कहाँ है किसी से नहीं छिपा है और मजबूरी का नाम भी बदल गया है |पहले कहावत थी- मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी, अब लोग कहते हैं मजबूरी का नाम मनमोहन सिंह| यूपीए -1और यूपीए-2 तो जैसे-तैसे चल गया| कांग्रेस को भी समझ में आ गया है कि यूपीए-3 या तो बनेगा नहीं और बना तो उसका प्रमुख प्रधानमंत्री पद का दावेदार होगा।
इसीलिए कांग्रेस का एक धड़ा राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने की सिफारिश कर रहा है दूसरा इसे तमाशा देखना, कहता है | बीच में भी मनमोहनसिंह के विकल्प की बात उठी थी और जो नाम सामने आया था उसे इतना सम्मान दिया गया कि वे महामहिम हो गये| राहुल बाबा प्रधानमन्त्री होंगे का हुल्लड़ मचाने वाले थोडा पीछे और ज्यादा आगे तक देख लें|अंदर बाहर की चुनौतियों से निपटने के लिए परिवार के नाम के अलावा भी बहुत कुछ लगता है |
नरेंद्र भाई के पैरोकार भी इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि “गुजरात वैबेरेन्ट” से एक प्रतिनिधि मंडल को वापस करने से प्रधानमन्त्री की योग्यता नहीं होती| इसके लिए देश में सर्व स्वीकार्यता जैसी योग्यता होती है|
तो सवाल यह है कि कौन? देश में कोई एक दल 2014 में सरकार नहीं बना पायेगा इसके आसार साफ दिख रहे हैं| क्षेत्रीय दलों की भूमिका ज्यादा होगी उनके पास भी सर्व स्वीकार्य चेहरा नहीं होगा| प्रधानमंत्री-प्रधानमंत्री खेलने की बजाय अपने कदों को नाप कर कंधे मजबूत करें ,विदेशी चुनौतियाँ दिल्ली के सिंहासन पर भारत के राष्ट्र चिन्ह “शेर” की प्रतिकृति चाहती हैं|