क्या थे, क्या हैं और क्या होंगे हम

shailendra gupta
दिल्ली से प्रकाशित  पत्रिकाओं के ताजे अंक किसी ड्राइंग रूम में रखने से पहले इस सप्ताह परिवार वाले गंभीरता से सोच रहे हैं |पत्रिकाओं के ये अंक बंद कमरों में ही देखे और एकांत में ही  पढ़े जा सकते हैं| बाज़ार का स्वभाव अख़बार [पत्रिकाओं] में उतर आया हैं |मौके का फायदा उठा कर रुपया बनाने में विपणन कभी कोताही नहीं बरतता है, पर सम्पादकीय विभाग शायद बहुत दबाव के बाद ऐसे निर्णय के साथ जाता है | विकास के इस युग में क्या क्या बिकेगा ?

दिल्ली गैंग रेप कांड के बाद मीडिया हॉट समाचार के रूप में वह सब छापने लगा जिस पर वह ९० के दशक में प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इण्डिया में असहमति व्यक्त कर चुका था |तब उत्तर प्रदेश के एक बड़े शहर से प्रकाशित पत्रिकाओं का विषय घूमफिर कर यौन होता था वे उसे शिक्षा का अनिवार्य अंग मानते थे | और उनकी इस दलील पर देश में व्यापक बहस हुई थी और स्व घोषित आचार संहिता बनी थी| इसकी बहुत  सी पाबंदियों में एक यह भी थी की हम इसे बाजारवाद से मुक्त रखेंगे | दुर्भाग्य से  ऐसा नहीं हो सका और अब तो ..........!

विश्व को यौन शिक्षा का पाठ भारत ने ही पढ़ाया है| पौराणिक कामदेव, महर्षि वात्सायन और कोका पंडित इस समाज के अंग रहे हैं | फिर भी यह विषय इतना सार्वजनिक नहीं हुआ, जितना अब दिल्ली की  एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद हुआ है| जिस तरह साँस आती जाती है, उसे लेने के लिए कोई ट्यूशन क्लास नहीं लगाना पढ़ती है ,ऐसे ही यौन शिक्षा का मामला है |इस पर राय अलग अलग हो सकती है | लेकिन सब इस बात पर सहमत होगे  कि यह विषय ड्राइंग रूम का नहीं है | सर्वे  होना चाहिए ,उसकी रिपोर्ट भी आना चाहिए सारे सम्पादक इससे सहमत होंगे पर उसके प्रकाशन की बाजारू पद्धति से अनेक सम्पादक और पत्रकार असहमत है और मैं उनके साथ हूँ  आप भी होंगे |

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