चंदा बारगल/ धूप-छांव/ जब भी कुंभ या सिंहस्थ आता है तो हमें अखाड़ों, बाबाओं की एक अनोखी दुनिया देखने को मिलती है। भले ही हम बाकी दिनों में इन बाबाओं को यत्र-तत्र भटकते देखते हों पर वे एक देश व्यापी, सुव्यवस्थित सिस्टम का हिस्सा हैं। इनमें भी नागा साधु खास तौर पर आकर्षण का केंद्र होते हैं। भिन्न-भिन्न संप्रदायों के ये बाबा या संन्यासी किसी न किसी अखाड़े के साथ जुड़े होते हैं।
मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने सात अखाड़ों की स्थापना की थी। अखाड़ा दसनामी के तौर पर भी जाना जाता है, इसलिए यह भी माना जाता है कि दस अखाड़े होंगे। नागा और हिमालय के तमाम बाबा और उनके शिष्य यह मानते हैं कि उनका अखाड़ा आदि शंकराचार्य के भी पहले से गोरखनाथ संप्रदाय के अधीन हैं।
महानिर्वाणी, निरंजनी, अटल, जूना अवधान, अग्नि और आनंद अखाड़ा मुख्य हैं। बाद में उनका आंकड़ा बढ़ता गया। ये अखाड़े शिवपंथी और वैष्णवपंथी में बंटे हुए हैं। ब्रह्मा की पूजा करने वाला 'कल्पवासिस' अखाड़ा संप्रदाय पिछली सदी में चलन में आया। इसके अलावा 'उदासीन' अखाड़ा भी है।
शिवपंथी अखाड़ा इलाहाबाद, वाराणसी, प्रयाग नाशिक और जूनागढ़ में है, जबकि वैष्णव अखाड़ा फैजाबाद, वृंदावन और सांबरकांठा में है। उदासी अखाड़ा इलाहाबाद, हरिद्वार में विशेष आधार रखता है। हर अखाड़ा सुव्यवस्थित रूप से पूरे भारत में धर्म संस्थान सम्हाल सकता है, इसके लिए वह आठ क्षेत्रों में विभक्त होता है। उसमें भी 52 के करीब उप विभाग हर दिशा में होते हैं।
अखाड़ों के इन स्थानों के प्रमुख महंत के रूप में विराजित होते है। इन तमाम अखाड़ों के उपर श्रीपंच नामक कार्यकारिणी होती है, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव शक्ति और भगवान श्रीगणेश के प्रतिनिधि होते हैं। भगवान दत्तात्रय को केंद्रीय स्थान पर रखना होता है। श्रीपंच का चुनाव कुंभ मेले में होता है। चार साल तक वे अपना पद सम्हालते हैं। मिनी कुंभ में पुन: नई समिति चुनी जाती है।
अखाड़ों का सर्वोच्च बाबा या संन्यासी महामंडलेश्वर के रूप में जाना जाता है। हम यूं भी कह सकते हैं कि एक अखाड़े के 52 महंत और उनके उपर सर्वोच्च यानी महा मंडलेश्वर। यानी महामंडलेश्वर, मंडलेश्वर और महंत—इस प्रकार होता है। इन तमाम अखाड़ों के याधुओं, बाबाओं का कुंभ मेले में स्नान का पहला अधिकार है। उसके बाद ही श्रद्धालु डुबकी लगा सकते हैं।
इन बाबाओं को चिलम फूंकने वाले या जटाधारी, मैले—गंदे मानकर नजर अंदाज नहीं करना चाहिए। उनमें से अनेक तो प्रचंड विद्वान, सिद्ध और ईश्वर के साक्षात् दर्शन कर चुके होते हैं। गूढ़ संसार के स्वामी होते हैं और कंदराओं, जंगलों, नदियों की परिक्रमा में निजानंद में मस्त रहते हैं। कोई चेला या व्यक्ति उनके आगे पीछे चले तो वे उस पर बरस पड़ते हैं। कई बाबा तो अंतर्यामी होते हैं। यदि कोई उन्हें छेड़ता है या हंसी उड़ाता है तो यूं समझिए कि उनकी मस्ती भंग हो जाती है और वे आगबबूला हो जाते हैं। हालांकि, हमने तमाम योगियों, तपस्वियों के चरित्र, अनुभव या साधना के बारे में जो पढ़ा है, वैसे बाबा या संन्यासी मिलना अब दुर्लभ है।
इन बाबाओं को हिंदू धर्म और देश की रक्षा में भी महत्व दिया गया है। ये बाबा अपने त्रिशूल, तलवार, दंड या बाहुबल से मौका पड़ने पर दुश्मन का खात्मा करने में भी पारंगत होते हैं। दसनामी अखाड़ा, इस प्रकार की शौर्यकला में निपुण है। हरेक धर्म में धर्म और राष्ट्र रक्षा मूलभूत है। अयोध्या में राम जन्मभूमि में मंदिर के लिए हक की मांग के लिए निर्मोही अखाड़े ने ही अदालत में केस दाखिल किया था। भविष्य में यदि कुछ होता है तो निर्मोही अखाड़ा ही मुख्य भूमिका में रहेगा। रामानुज संप्रदाय का अखाड़ा भगवान राम को पूजता है।
यूं देखें तो अखाड़े का शाब्दिक अर्थ व्यायामशाला होता है, जहां पहलवान रियाज करते हैं और कुश्ती लड़ते हैं। बाबाओं के अखाड़े को अंग्रेज 'केम्प' कहते थे। ये अखाड़े हिंदू धर्म की ध्वजा और धुरी दोनों सम्हालते हैं। देश के 70 करोड़ हिंदुओं का संबंध किसी न किसी साधु, संत, संन्यासी, बाबा, मंदिर, संप्रदाय या अखाड़े से जरूर होता है। यही वजह है कि हमारे राजनीतिक दल, खास तौर पर भाजपा कुंभ मेले में अखाड़ों का आशीर्वाद पाने या डुबकी लगाने को आतुर रहते हैं।
अखाड़ों में आंतरिक राजनीति भी जबरदस्त होती है। कई बार तो कुंभ में पहले स्नान करने की होड़ में ये अखाड़े आपस में उलझ जाते हैं। वैरागी और संन्यासियों की अपनी अलग दुनिया होती है। वैरागी खुद को अधिक ईश्वराभिमुख, कठोर तपस्वी मानते हैं तो संन्यासी खुद को अधिक पवित्र, शुद्ध, सुसंस्कृत ज्ञानी और तत्वज्ञानी के रूप में देखते हैं।
द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने कुंभ मेला आयोजकों से यह मांग की थी कि हिंदू परंपरा के मुताबिक, चार पीठों के शंकराचार्य ही अधिकृत हैं। चार के अलावा जो हैं, उन्हें 'शंकराचार्य चतुष्पद' नामक स्थान दिया जाए, ताकि स्वयंभू शंकराचार्य अपने आप बाहर आ जाएंगे, पर उत्तरप्रदेश के कर्णधारों को लगा कि ऐसा किया गया तो स्थिति गंभीर और विस्फोटक हो जाएगी।
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के महंत के लिए एक से अधिक दावेदार होने के कारण इलाहाबाद कोर्ट में मामला गया था। महंत ज्ञानदास को अध्यक्ष बनाने संबंधी फैसला आने के बाद जब वे अपने विशाल अनुयायियों और शिष्यों के साथ कुंभ में दाखिल हुए तो दीगर पक्षों की भृकुटि तन गईं थीं। सात शैवपंथी अखाड़ों का महंत के लिए बलदेवसिंह को समर्थन था।