ये लोग इतने उतावले क्यूँ हैं ?

वैसे अभी चुनाव दूर है| क्या दिल्ली,क्या भोपाल और क्या दूर-दराज़ के जिले की विधानसभा सीट सबके  बड़े-छोटे नेता विनम्र, सामाजिक ,और धार्मिक हो गये हैं | जो पद पर नहीं है वे यहाँ-वहां से बटोरकर  और जैसे-तैसे किसी न किसी कार्यक्रम के बहाने अपनी उपस्थिति समाज में दर्शाने की कोशिश में लगे है और जो किसी पद पर  हैं, पद का उपयोग कथा भागवत से लेकर तेरहवीं तक के कार्यक्रम के प्रायोजक बनने में कर  रहे हैं |

भाजपा शासित राज्यों में एक और किस्म भी इस दौड़ में है, वह संघ की शाखा में नियमित जाकर अपने देशभक्त होने का प्रमाण पत्र जुटा रही है ,ताकि वक्त जरूरत पर किसी को किसी से  फोन करवाया जा सके| संघ के अधिकारी तो हमेशा परोक्ष से मदद करते हैं | अरे-अरे एक और नस्ल भी मैदान में है, यह पूर्व सांसद,पूर्व विधायक, पूर्व पार्षद के रिश्तेदारों अर्थात बेटे,बेटी, भाई-भतीजों की है, जो सिर्फ इसी आधार पर टिकट चाहते है कि वे किसके क्या हैं?

गुजरात की मोदी सरकार की वापिसी और राहुल गाँधी द्वारा तय किये गये पैमाने के बाद हर थोड़े से भी राजनीतिक कार्यकर्ता को भाजपा शासित राज्य मुफीद नजर आने लगे हैं | संघ की साप्ताहिक शाखा में अब वे लोग  भी जाने लगे है जो पहले  कांग्रेस सेवा दल तक में पद के लालायित रहे हैं | भोपाल के दृश्य के आधार पर पूरे मध्य प्रदेश और रायपुर को आधार पर छत्तीसगढ़ को देखें | 

दोनों राज्यों की इस दौड़ का चित्र कुछ कुछ उभरता है| जैसे भोपाल में दो वर्तमान विधायकों की  टिकिट खतरे में दिखाई दे रही है| इनके क्षेत्रों में  परिचय बढाओ  कार्यक्रम कथा से तेरहवीं तक में उपस्थिति  उन लोगों कि ज्यादा दिख रही हैं, जो कभी पिछले चार सालों में  दूर-दूर तक नहीं दिखते थे | परिवारवाद  के नाम पर वे लोग भी इन्हीं सीटो पर नजर डाल रहे हैं, जो संघ में देशसेवा की बात कहकर दायित्व ले चुके हैं | ख़ैर .......|

प्रश्न यह है की वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में भाजपा और कांग्रेस अपने प्रत्याशी चयन का मापदंड क्या रखती है ? क्या वे ही चेहरे फिर से लौटेंगे जिनसे आम मतदाता खुश नहीं है?क्या परिवारवाद  चलेगा? क्या संघ सिफारिश करेगा ? अगर यह सब होगा तो दृश्य नहीं बदलेगा कम से कम इन राज्यों  में चुनौती न होने और विकल्पहीनता से सरकार बनेगी |जनता की सरकार नहीं होगी |

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