दिलीप सिकरवार। शिक्षकों को पूरी तनख्वाह न देना, जिससे एक दशक से ज़्यादा से उत्पन्न शिक्षकों के असंतोष का गहरा असर शिक्षा व्यवस्था पर पड़ा है, सभी सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण की योजनाबद्ध साजिश का हिस्सा है.
शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, राशन जैसी सभी बुनियादी ज़रूरतों की सार्वजनिक प्रणाली को कमज़ोर और जर्जर कर सरकार इनके पूर्ण निजीकरण के लिए रास्ता बना रही है, और समाज के बहुसंख्यक आदिवासी, दलित, किसान और मजदूर को महंगी और पहुँच के बाहर बाजार व्यवस्था के भरोसे छोड़ रही है. तो फिर सरकार किस काम की? क्या “क़ानून व्यवस्था” के नाम पर आये दिन आमजनों को लाठी-गोली-जेल से आतंकित करना ही सरकार का काम है? जोर शोर से उछाले जा रहे “विकास” के नारों का क्या यही सत्य है?
शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं पर खर्च करने के बजाये कॉर्पोरेट घरानों पर ही शासकीय खजाना खाली किया जा रहा है. स्वस्थ और पुख्ता सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली समाज की नीव है, और इस नीव को उखाड़ने पर सरकार तुली हुई है.
जो सरकार आम-आदमी के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं उपल्ब्ध कराने कि बजाए, उन्हें बाज़ार के भरोसे छोड दे, वो एक सुशासन चलाने वाली सरकार कैसे कहला सकती है.
जागृत आदिवासी दलित संगठन, नर्मदा बचाओ आंदोलन , समाजवादी जन परिषद, श्रमिक आदिवासी संगठन,भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन, बरगी बांध विस्थापित और प्रभावित संघ, बघेलखंड आदिवासी मुक्ति मोर्चा, शिक्षा अधिकार मंच, यह मांग करते है कि सरकार ठेके पर शिक्षक नियुक्त करना बंद करे. जब सरकार अपने , कलेक्ट्र, एस पी, सचिव, डाक्टर, इंजीनियरो को मोटी-मोटी तन्खावह दे सकती है, तो फ़िर शिक्षको से सौतेला व्य्वहार क्यों?
शिक्षकों को पूरी तनख्वाह न देना, जिससे एक दशक से ज़्यादा से उत्पन्न शिक्षकों के असंतोष का गहरा असर शिक्षा व्यवस्था पर पड़ा है, सभी सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण की योजनाबद्ध साजिश का हिस्सा है. शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, राशन जैसी सभी बुनियादी ज़रूरतों की सार्वजनिक प्रणाली को कमज़ोर और जर्जर कर सरकार इनके पूर्ण निजीकरण के लिए रास्ता बना रही है, और समाज के बहुसंख्यक आदिवासी, दलित, किसान और मजदूर को महंगी और पहुँच के बाहर बाजार व्यवस्था के भरोसे छोड़ रही है. तो फिर सरकार किस काम की? क्या “क़ानून व्यवस्था” के नाम पर आये दिन आमजनों को लाठी-गोली-जेल से आतंकित करना ही सरकार का काम है? जोर शोर से उछाले जा रहे “विकास” के नारों का क्या यही सत्य है?
स्वयं शिवराज सिंह चौहान सहित उनके अमले के अधिकांश हिस्से की निजी तरक्की की नीव सरकारी स्कूल के शिक्षकों ने ही डाली थी. अगर सरकारी स्कूल नहीं होता तो क्या वे पढ़ पाते, और पढ़ नहीं पाते तो मुख्यमंत्री, अफसर और नेता कैसे बन पाते? तो फिर यह कैसी “गुरु दक्षिणा” है कि जिस थाली में उन्होंने खाया, उसी में छेद करने जा रहें है? ज़रूरत है सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को मज़बूत करने की, उसमें ज्यादा निवेश करने की, उसकी बहुत सारी खामियों को युद्ध स्तर पर सुधारने की, उसमें भ्रष्टाचार खत्म करने की. न कि शिक्षकों को आधी तनख्वा पकड़ा कर अपना पल्ला झाडना, जिससे काबिल और प्रशिक्षित युवा शिक्षक बनने से कतराएँ, और एक कुंठित, असंतुष्ट अमले के बल पर समाज की नीव टिकी हो.
क्या होगा लाखों होनहार आदिवासी, दलित, किसान और मजदूर परिवार के बच्चों का, जो इतनी जदोजहद से शिक्षा के माध्यम से अपनी और अपने समाज की जिंदगी सुधारने की कोशिश कर रहें है?
समय समय पर आंदोलनरत शिक्षकों को भी चाहिए कि अपनी मांगों के साथ साथ वे शिक्षा प्रणाली की खामियों का विश्लेषण करें, पालकों के साथ मिलकर उनको सुधारने का प्रयास करें, और विकास नीतियों के उन सभी पहलुओं का विश्लेषण करें जिनसे न सिर्फ वे स्वयं, पर पूरा आम समाज पीड़ित है.
दिलीप सिकरवार,
09425002916