अब जिन्दगी पहले जैसी तो नहीं रहेगी: दिग्विजय सिंह

shailendra gupta
आशा, जिन्हें मैं प्यार से आशु कहता था, अब इस दुनिया में नहीं रहीं। उनके पिताजी कर्नल डॉ. जगदेवसिंह एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। ब्रिटिश सेना में सेवा करते हुए उन्हें जापानियों द्वारा बंदी बना लिया गया था, उसके बाद वे सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) में शामिल हो गए और अपने जीवन के अंतिम समय तक वे आईएनए के सचिव रहे। उनकी मां हिमाचल प्रदेश में बसंतपुर-अर्की से हैं।

आशा का जन्म दिल्ली में हुआ और वे वहीं पली बढ़ीं। हमारी शादी के बाद वे राघौगढ़ आ गईं। उस समय राघौगढ़ 10000 से कम आबादी वाला एक छोटा शांत कस्बा था। वे यहां पर भली-भांति रम गईं और हमेशा दिल्ली के बजाय राघौगढ़ में अधिक रहीं।

उन्होंने जीसस एंड मेरी कान्वेंट दिल्ली से सीनियर केम्ब्रिज परीक्षा पास की। वे एक मेधावी छात्रा रहीं और मैंने सीनियर केम्ब्रिज में जितने अंक प्राप्त किए थे उससे कहीं ज्यादा अंक उन्होंने प्राप्त किए। हमारे चार्टर्ड अकाउंटेंट नेमीचन्द जी जैन ने मुझे यह याद दिलाने का कोई मौका नहीं छोड़ा कि आशा मुझसे कई गुना ज्यादा बुद्धिमान हैं और मैं उनकी बात से पूरी तरह सहमत था।

हिन्दू कॉलेज से बीएससी प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के तत्काल बाद उन्हें लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज में प्रवेश मिला ही था कि मैं उनके जीवन में आ गया और पढ़ाई की बजाय उन्हें राघौगढ़ ले आया।

हमारी शादी परिवार के लोगों द्वारा तय की गई थी, जिसे पूरी तरह से मेरी बड़ी बहन और मौसी ने तय किया था, किन्तु यदि मैं स्वयं भी अपना जीवनसाथी चुनता तो वह इससे बेहतर नहीं हो सकता था।

आशा बहुत सशक्त और दृढ़ निश्चयी थीं, जो कभी भी स्वयं के प्रति निर्धारित मूल्यों और सिद्धांतों से नहीं डगमगाईं। वे जो भी काम अपने हाथ में लेती थीं उसके प्रति बहुत ही सजग रहती थीं। वे अपने काम को चुपचाप करने वाली और निजता पसंद स्वभाव की थीं। उन्होंने अपने सिद्धांतों और मूल्यों के साथ कभी समझौता नहीं किया। अतएव जो लोग उनसे भली-भांति परिचित नही थे, उन्हें कई बार गलत भी समझ लेते थे।

वर्ष 1971 से 1986 तक और उसके बाद भी मैंने उन्हें चार बेटियों और एक बेटे को जन्म देने और उनका पालन-पोषण करने में व्यस्त रखा। सभी की शिक्षा और बेटियों का विवाह पूरी तरह से उनके ही द्वारा संपन्न किए गए।

हमारी सबसे बड़ी बेटी का विवाह 24 अप्रेल 1992 को हुआ। उस समय मैं मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष था। 21 अप्रेल को तिरुपति में अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव थे। मेरे राघौगढ़ पंहुचने तक विवाह की रस्में प्रारंभ हो चुकी थीं और इस दौरान मेरी अनुपस्थिति में मेरी पत्नी को मेरी तलवार के साथ बैठकर रस्म अदा करनी पड़ी। (पति की अनुपस्थिति में उसकी तलवार के साथ बैठना राजपूतों में एक आम प्रथा है।)

हमारी दूसरी बेटी का विवाह 9 दिसंबर 1993 को हुआ। उस समय नवंबर के अंत में मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव थे। मैं 5 दिसंबर को मुख्यमंत्री चुना गया और मैंने 7 दिसंबर को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। आप कल्पना कर सकते हैं कि इस अवसर पर मैंने परिवार को कितना समय दिया होगा।

हमारी तीसरी बेटी का विवाह लोकसभा चुनावों के दौरान अप्रेल 1996 में हुआ और मैंने उसकी शादी के लिए चुनाव प्रचार से तीन दिन की छुट्टी ली।

हमारी चौथी बेटी का विवाह 2005 में हुआ और उसी वर्ष बिहार में विधानसभा के चुनाव आ गए जहां का मैं उस समय प्रभारी था। जिस दिन दिल्ली में बेटी की शादी थी उसी दिन मतदान था। मैं ठीक विवाह के समय ही दिल्ली पंहुचा।

आशा दुर्भाग्य से अपने जीवनकाल में मेरे बेटे का रिश्ता तय नहीं कर सकीं, इस बात का मुझे हमेशा दुःख रहेगा।

हम दोनों ने ही सदैव एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र का सम्मान किया। उन्होंने कभी भी राजनीतिक मामलों और प्रशासन में हस्तक्षेप नही किया और न ही उन्होंने मुझे कभी घर-गृहस्थी के मामले में हस्तक्षेप करने दिया। यहां तक मुझे खाने के लिए सीधे रसाई घर से खाना मांगने का भी अधिकार नही था। मुझे यह उनके माध्यम से ही करना पड़ता था!

जब तक वो थीं मैंने एक बार भी कभी अपना सामान नहीं जमाया। 43 वर्षों में पहली बार इस साल 27 फरवरी को मैंने अपना सामान स्वयं बांधा जब मुझे उनके पार्थिव शरीर के साथ राघौगढ़ आना था।

हमने हमारे सभी जन्मदिन और विवाह की वर्षगांठ साथ-साथ मनाई। एक भी साल नहीं चूके।

यहां तक इस साल 28 फरवरी को भी मेरे जन्मदिन के अवसर पर हम साथ-साथ थे, किन्तु मैं उनके पार्थिव शरीर को अंतिम यात्रा के लिए राघौगढ़ ले जा रहा था। मैंने उनके बगैर कभी भी विदेश यात्रा नहीं की, जैसा कि मैंने उनसे वादा किया था।

वे जहां कहीं भी जाती थीं, वहां से कलाकृतियां एकत्रित करने का उन्हें बहुत शौक था। उन्हें गुड़ियों से अत्याधिक लगाव था और वे जिस भी देश में गई वहां से उन्होंने विशिष्ट प्रकार की गुड़ियाएं एकत्रित कीं। वे पिछले वर्ष तब खूब खुश हुईं जब अपने द्वारा कार्डिफ से लाए गए लकड़ी के बहुत बड़े गुड़ियाघर को मेरे सबसे छोटे दामाद ने बड़ी मेहनत और चाव से जमाया।

वे बहुत ही सुन्दर पेंटिंग करती थीं। उन्होंने दिल्ली में कला संबंधी कोर्स के साथ ही दिल्ली संग्रहालय से कलाओं के संरक्षण पर भी कोर्स किया था।

भले ही उन्होंने राजनीति में हस्तक्षेप न किया हो किन्तु वे जो भी हो रहा है उसके पति पूर्णतया सजग रहती थीं और सदैव संतुलित सलाह देती थीं। वास्तव में उन्होंने तथा उनके पिता ने ही मुझे 1971 में कांग्रेस पार्टी में शामिल होने की सलाह दी थी।

एक साधारण गृहणी की अंतिम विदाई में एक लाख से अधिक लोग शामिल थे, जिसे देखकर कोई भी राजनीतिक व्यक्ति ईर्ष्या कर सकता है!

आशा मेरे लिए एक पत्नी से कहीं बढ़कर थीं। वे 43 वर्षों तक मेरे लिए एक मित्र, मार्गदर्शक और हमसफर रहीं। वे एक बहुत ही शानदार इंसान और हमारे बच्चों के लिए बहुत अच्छी मां थीं। उनके बिना अब जिन्दगी पहले जैसी तो नहीं रहेगी किन्तु जीवन को तो आगे बढ़ना ही है।

ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे।

(लेखक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव और मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हैं)

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