अंकुर तिवारी@धरती के रंग। प्रदेश के हृदय स्थल में स्थित सागर जिले की रहली तहसील में पहाड़ों और घने जंगलों के बीच बसे छोटे से ग्राम रानगिर में विख्यात हरसिद्धि माता का मंदिर है। रानगिर क्षेत्र शक्ति साधना के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। हरसिद्धी माता की ख्याति प्रदेश के बाहर भी है और यही कारण है कि हरसिद्धि माता के दर्शनों के लिए दूर-दूर से श्र्द्धालु आते हैं।
रानगिर माता के दरबार में चैत्र एवं शारदीय नवरात्रि पवर भव्य मेला लगता है। पूर्वकाल में आवागमन के साधनों के अभाव एवं पहुंच मार्गो की दशा ठीक नहीं होने के कारण मेला सिर्फ तीन दिन लगता था परन्तु विगत वर्षों में इस क्षेत्र में हुए अनेकों प्रकार के विकास कार्यों के कारण हरसिद्धि माता के दरबार तक आना-जाना सुगम हो गया है मेला स्थल पर भी अनेकों सुविधाएं हो जाने के कारण यहां लगभग साल भर ही मेले जैसा माहौल रहता है।
नवरात्रि के दिनों में माता के दर्शन कर आराधना करने का विशेष महत्व होने के कारण परमा से लेकर पूर्णिमा तक भारी भीड़ होती है। त्रिरूप धारिणी हरसिद्धि - अति प्राचीन काल से ऐसी मान्यता है कि माता से जो भी मनौती मांगी जाती है वह पूर्ण होती है और इसी कारण माता को हरसिद्धि माता के रूप् में पुकारा जाता है।
सिद्धिदात्री माता दिन में तीन रूप् धारण करने को भी प्रसिद्ध हैं। श्र्द्धालुओं के अनुसार प्रातः काल में माता बाल कन्या के रूप में दर्शन देती हैं। दोपहर बाद माता नयुवती -नवशक्ति का रूप धारण कर लेती हैं। एवं साझ ढलने के बाद वह वृद्ध माता के रूप में भक्तों को आशीर्वाद देती हैं।माता का इतिहास- माता हरसिद्धि के मंदिर का निर्माण कब और कैसे हुआ इसका कोई प्रमाण नहीं है परन्तु यह मंदिर अतिप्राचीन और ऐतिहासिक है।
चर्चाओं के मुताबिक कुछ लोगों इसे महाराज छत्रसाल के द्वारा बनवाए जाने की संभावना व्यक्त करते हैं क्योंकि सन् 1726 ईस्वी में सागर जिले में महाराज छत्रसाल के द्वारा कई बार आक्रमणों का उल्लेख इतिहास में वर्णित है। सिंधिया राज घराने का संबंध भी रानगिर से होना बताया जाता है।
हरसिद्धि माता के बारे में भी अनेकों किवदन्तियां प्रचलित हैं। एक किवदन्ती के अनुसार रानगिर में एक चरवाहा हुआ करता था। चरवाहे की एक छोटी बैटी थी चरवाहे की बेटी के साथ एक वन कन्या रोज आकर खेलती थी एवं चरवाहे की बेटी को अपने साथ भोजन कराती थी तथा रोज एक चांदी का सिक्का देती थी। चरवाहे को जब इस बात की जानकारी लगी तो एक दिन छुप कर दोनों कन्या को खेलते देख लिया।
चरवाहे की नजर जैसे ही वन कन्या पर पड़ी तो उसी समय वन कन्या ने पाषाण रूप धारण कर लिया । बाद में चरवाहे ने पाषाण रूप् धारण कर चुकी कन्या का चबूतरा बना कर उस पर छाया आदि की और यही से मां हरसिद्धि की स्थापना हुई।
रानगिर का रहस्य
सिद्धि क्षेत्र रानगिर के नाम को लेकर भी कई किविन्दिंतयां प्रचलित हैं। किवदन्ती के अनुसार भगवान शंकर जी ने एक बार सति के शव को हाथों में लेकर क्रोध में तांडव नृत्य किया था। नृत्य के दौरान सती माता के अंग टूट-टुट कर पृथ्वी पर गिरे थे। सती माता के अंग जिन जिन स्थानों पर गिरे वह सभी शक्ति पीठों के रूप् में प्रसिद्ध हैं। ऐसी मान्यता है कि रानगिर में सती माता की राने (जांघे) गिरी थीं और इसीलिए इस क्षेत्र का नाम रानगिर पडा। रानगिर के पास ही गौरीदांत नामक क्षेत्र है यहां सती माता के दांत गिरना माना जाता है।
एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार भगवान राम ने वनवास के दौरान रानगिर के पर्वतों पर विश्राम किया था और इस कारण इस क्षेत्र का नाम रामगिरी था जो बाद में अपभ्रन्श होकर रानगिर हो गया। बात हो की रनानगिर से लगा लगा हुआ रामपुर नाम का ग्राम है।
मुंडन संस्कार का महत्व
हरसिद्धि माता के दरबार में बच्चों के मुडन संस्कार की परम्परा अति प्राचीन है। मनोती पूर्ण होने एवं संतान उत्पत्ति होने पर अनेको परिवारों के लोग माता के दरबार में बच्चों का मुंडन करवाते है प्रतिवर्ष हजारों बच्चों के यहां दूर-दूर से लोग यही आकर मुंडन कराते हैं । माता के दरबार में मुंडन करवाने का बडा महत्व बताया जाता है। रहली क्षेत्र के कई मस्लिम परिवारों में भी हरसिद्धि की मान्यता है इन परिवार के बच्चों के भी मुंडन रानगिर में प्राचीन काल से होते आ रहे हैं।
कैसे पहुंचे रानगिर
देहार नदी के पूर्व तट पर घने जंगलों एवं सुरम्य वादियों के बीच स्थित हरसिद्धि माता के दरबार में पहुंचने के लिए जिला मुख्यालय सागर से दो तरफा मार्ग है। सागर, नरसिंहपुर नेशनल हाइवे पर सुरखी के आगे मार्ग से बायी दिशा में आठ किलोमीटर अंदर तथा दूसरा मार्ग सागर-रहली मार्ग पर पांच मील नामक स्थान से दस कि.मी. दोहिनी दिशा में रानगिर स्थित है। मेले के दिनों में सागर, रहली,गौरझामर,देवरी से कई स्पेशल बसे दिन-रात चलती है। दोनों ओर से आने-जाने के लिए पक्की सड़कें हैं। निजी वाहनों से भी बहुत सारे लोग पहुँचते हैं।