प्रमोद त्रिवेदी ‘पुष्प’@धरती के रंग। संत कवि सिंगाजी को निमाड़ के कबीर कहा जाता है। उन्होंने निर्गुणी भक्तिधारा की अनोखी निर्झर बहायी। वास्तव में वे नर्मदांचल की महान् विभूति थे। आज भी निमाड़ में उनके जन्म स्थान व समाधि स्थल पर उनके पगल्यों (पद्चिन्हों) की पूजा की जाती है। पशुपालक उन्हें पशु दूध और घी अर्पण करते हैं। इन स्थानों पर घी की अखण्ड ज्योत भी प्रज्वलित रहती है।
सन्त शिरोमणि सिंगाजी महाराज का जन्म मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले के एक छोटे से गांव खजूरी में हुआ था। पिता श्री भीमाजी गवली और माता गवराबाई की तीन सन्तान थी। बड़े भाई लिम्बाजी और बहिन का नाम किसनाबाई था। सिंगाजी का जसोदाबाई के साथ विवाह हुआ था। इनके चार पुत्र—कालू, भोलू, सदू और दीप थे। सिंगाजी के जन्म और समाधिस्थ होने के बारे में विद्वान मतैक्य नहीं हैं। डा. कृष्णदास हंस ने उनका जन्म विक्रम संवत् 1574 बताया है। पंडित रामनारायण उपाध्याय ने वि.स. 1576 की वैशाख शुक्ल एकादशी (बुधवार) बताया है। इसी प्रकार समाधिस्थ होने की तिथि डा. हंस श्रावण शुक्ल नवमी सवंत् 1664 व पं. उपाध्याय वि.स. 1616 श्रावण बदी नवमी निश्चित करते हैं।
ऐसी लोकमान्यता है कि श्रृगी ऋषि ने ही सिंगाजी के रूप में जन्म लिया। संस्कृत में ‘श्रृग’ का अर्थ सींग होता है और ‘सिंगा’ भी ‘सिंग’ का अर्थ लिए हुए है। फिर सिंगाजी की उच्च आध्यात्मिकता उनके भजनों से भी स्पष्टï होती है। लोकजीवन से जुड़े होने के कारण उनके काव्यगत उदाहरण भी उसी परिवेश से हैं, जो सीधे मन पर प्रभाव डालते हैं। एक भजन से यह बात स्पष्ट एवं प्रमाणित हो जाती है।
खेती खेड़ो रे हरिनाम की, जामंऽ मुक्तो लाभ।
पापका ‘पालवा’ कटाव जो, काठी बाहर राल, कर्म की कासी एचावजो, खेती चोखी थाय।
‘वास’ ‘श्वास’ दो बैल हैं, ‘सुर्ती’ रास लगाव,प्रेम-पिराणो कर धरो, ‘ज्ञान’ आर लगाव।
‘ओहं’ वक्खर जूपजो, ‘सोहं’ सरतो चलाव,’मूलमंत्र’ बीज बावजो,खेती लटलुम थाय।
’सत’ को मांडो रोप जो, ‘धरम’ पैड़ी लगाव, ‘ज्ञान’ का गोला चलावजो, सूवो उड़ी-उड़ी जाय।
‘दया’ की दावण राल जो, बहुरि फेरा नहीं होय, कहे सिंगा पहिचाण लेवो, आवागमन नहीं होय।
वैसे भीमाजी का घर-परिवार काफी सम्पन्न था। उनके आंगन सैकड़ों भैंसें बंधी रहती थीं। लेकिन विषम परिस्थितियों के कारण उन्हें गांव छोड़कर पूर्वी निमाड़ में ग्राम हरसूद जाना पड़ा। यह घटना वि.सं. 1581-82 की मानी जाती है। उस समय सिंगाजी की उम्र मात्र पांच वर्ष की थी। सिंगाजी जब 22 वर्ष के हुए तो भामगढ़ के राव साहब के यहां हरकारे (डाकिये) की नौकरी की। इन्हीं दिनों स्वामी ब्रह्मïगिर के मुख से भजनरूपी अमृत का पान किया और मन में वैराग्य उपजा। बाद में मनरंग स्वामी से दीक्षा ग्रहण की जो ब्रह्मïगिरजी के शिष्य थे।
सिंगाजी के जीवन से जुड़ी अनेक चमत्कारिक घटनाएं आज भी प्रचलित हैं। जनमानस में पैंठी इन घटनाओं में कुछेक इस प्रकार हैं :-
एक बार सिंगाजी की भैंसों की चोरी हो गई। घर के सभी सदस्य चिंतित होकर भैंसों की खोज में निकल पड़े। लेकिन सिंगाजी घर बैठे-बैठे मुस्कराते रहे। यह देखकर मां बहुत नाराज हुई। तब सिंगाजी ने कहा,’माय तू चिंता मत कर। भगवान अपणी भैंस न को रखवालों छे। तू तो पाड़ा-पाड़ी छोड़। भैंसी न आवतीऽ होयगऽ।’ (मां तू चिंता मत कर। भगवान अपनी भैंसों का रखवाला है। तू तो पाड़ा-पाड़ी छोड़, भैंसें आती ही होंगी)। सचमुच तभी भैंसें आ गईं। ढूंढऩे वाले चकित थे कि आखिर भैंसें किस मार्ग से आयीं। इसी प्रकार एक बार गांव के लोगों ने सिंगाजी से ओंकारेश्वर चलने का आग्रह किया। तो उन्होंने कहा-तम चलो, हव अऊऽज(तुम चलो मैं आता हूं)। तीन दिनों की पैदल यात्रा के बाद लोग वहां पहुंचे तो देखा कि सिंगाजी नाव में बैठे हैं। जब लोग गांव वापस आये तो पता चला कि सिंगाजी गांव छोड़कर कहीं गये ही नहीं। तब से लोगों में उनके प्रति सिद्ध पुरुष होने की मान्यता और दृढ़ हो गई।
वैसे उनके भजनों में झाबुआ के राजा बहादुरसिंह के डूबते जहाज को उबारने व कुंवारी भैंस का दूध दुहने की घटनाएं भी आती हैं। इनके अलावा एक उल्लेख यह भी मिलता है कि सिंगाजी ने अपने गुरु को समाधिस्थ होने के बाद दर्शन दिए थे। इसकी भी एक रोचक कथा प्रचलित है— एक बार जन्माष्टïमी पर उनके गुरु मनरंगगिर को नींद आने लगी। उन्होंने सिंगाजी से कहा कि आरती के समय उन्हें जगा देना। जब आरती का समय हुआ तो सिंगाजी ने उन्हें गहरी नींद से जगाना ठीक नहीं समझा और खुद ही आरती कर दी।
थोड़ी देर बाद गुरु की नींद खुली। यह देखकर कि सिंगा ने आरती कर दी और जगाया नहीं, क्रोध में सिंगाजी को कहा, ‘जा दुष्टï! मुझे अपना मरा मुंह दिखाना।’ उन्हें यह बात तीखे तीर-सी चुभ गई। परंतु सिंगाजी ने गुरु के कोप-वचन को वरदान की तरह ग्रहण किया और ग्यारह माह की समाधि ले ली। कहते हैं मृत्यु के बाद जब मनरंगजी उनके घर आए तो सिंगाजी उन्हें रास्ते में ही मिले। इस प्रकार गुरु का वचन ‘मरा मुंह दिखाना’ सत्य और पूरा किया।
सिंगाजी के जन्म स्थान खजूरी की पहाडिय़ों पर आज भी सफेद निशान मौजूद हैं। कहा जाता है कि यहां सिंगाजी अपने पशुओं को चराते थे और दूध दुहते थे। उनके बारे में और भी अनेक चमत्कारिक घटनाएं प्रचलित हैं। इसी कारण निमाड़-मालवा के पशु-पालक आज भी सिंगाजी को देवता की तरह पूजते हैं। पदचिन्ह (पगल्ये) के मंदिर स्थापित हैं। जहां अखण्ड ज्योति और भजन-पूजन के साथ मेलों का आयोजन भी होता है। रोज शाम को मंदिरों में सिंगाजी के भजन मिरदिंग (मृदंग) के साथ गाये जाते हैं। गुरु-गादी की परम्परानुसार इस पद पर आसीन गुरु का आज भी पूरा सम्मान किया जाता है।