राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश के सर्वोच्च न्यायलय के दृष्टिकोण को पूरा देश मान्यता देता है । आम मान्यता है की सर्वोच्च न्यायालय जो कहता है और जो मानता है वह पहले दृष्टांत फिर परम्परा बन जाती है और फिर उस पर देश अमल करता है । भ्रष्टाचार के इस घटाटोप अँधेरे में सर्वोच्च न्यायलय ही एक मात्र दिशासूचक प्रकाश है और यह विश्वास हो रहा है कि कहीं तो कुछ सही होता दिख रहा है ।
कांग्रेस कोयला घोटाले में गले तक फंसी है कभी भी विधि मंत्री बदले जा सकते हैं । रेल मंत्री के दरवाजे पर तो सी बी आई ने दस्तक दे ही दी है । पर दिग्विजय सिंह यह मानने को तैयार नहीं है कि कहीं कुछ गलत हुआ है।
सी बी आई कोयला घोटाले की ठीक से जाँच नहीं कर सकी। उसकी रिपोर्ट में फेरबदल कानून मंत्री ने कराए । अतिरिक्त महान्यायवादी का इस्तीफा होता है । न्यायवादी और प्रधानमंत्री मुसीबत को कैसे टले पर मंत्रणा कर रहे है और राजा फरमा रहे है कि कुछ हुआ ही नहीं । सर्वोच्च न्यायलय की टिप्पणी का वे कोई अर्थ नहीं मानते । वैसे भी इंजीनियरों का संविधान से वास्ता कम ही होता है और राजा तो कई बार अदालत के बुलावे को टालने में सिद्धहस्तता रखते हैं।
इस बार मामला कुछ अलग है । कर्नाटक की जीत भ्रष्टाचार से मुक्ति का प्रमाण पत्र नहीं है । सर्वोच्च न्यायलय अर्थात कानून के हाथ बहुत लम्बे होते है और अब कानून सी बी आई को सी बी आई बनाकर छोड़ेगा । फिर भी सर्वोच्च न्यायलय के किसी भी निर्णय या टिप्पणी की आलोचना आम आदमी के लिए अवमानना का कारक होती है । कोई अलग राग में गाये तो वो जाने ।