वन्दे मातरम के खिलाफ पलायन

राकेश दुबे@प्रतिदिन। यह सम्भवत: पहला मौका है जब संसद में किसी संसद ने खुले आम वन्देमातरम के दौरान पलायन किया है। देश भक्ति की भावना ऊपर है या निजी आस्था ? एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब सिर्फ एक ही होता है कि यदि आपका प्रजातंत्र में विश्वास है तो 1950 से चली आ रही परम्परा के खिलाफ आपनी मनमर्जी करना क्या सही है?

विरोध करने वालों से सवाल यह है कि वन्दे मातरम में गलत क्या है? आज़ादी के आन्दोलन की सबसे सशक्त गूंज "वन्देमातरम" रही है और आज भी इसकी गूंज उतना ही रोमांचित करती है। जितनी 1882 में इस गूंज ने बंकिम चन्द्र को किया था, 1896 में रवीन्द्र नाथ टेगौर किया था या 1939 में महात्मा गाँधी को किया था।

महात्मा गाँधी ने 1939 में हरिजन में लिखा है उसका सारांश यह है की वन्दे मातरम किसी एक का नहीं सबका नारा था और यह गीत तो रोमांचित करता है। भारतीय संसद और देश की सभी विधान सभाएं इस नियम का पालन करती हैं कि सत्र के प्रारम्भ और अंत की परम्परा है उसका पालन हर सांसद का कर्तव्य है और उसकी अवहेलना अवमानना है।

लोकसभा अध्यक्ष ने इसे गम्भीर माना है। वस्तुत: यह अपराध है । मौलाना बर्क कुछ भी तर्क दें, हर मजहब निजी आस्था का विषय होता है। किसी भी मजहब में यह नहीं कहा गया है कि ऐसा काम करो जिससे  किसी का दिल दुखे। मौलाना बर्क ने अपने साथी सांसदों का ही नहीं पूरे  देश का दिल दुखाया है। मजहब की सारी बातों को अगर वे माने तो उन्हें बहुत कुछ छोड़ना होगा बीएसपी का चुनावी निशान भी। इस पर अफ़सोस करने की बजाये यह कहना की वे हर बार करेंगे इसकी निंदा होना चाहिए।


  • लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रख्यात स्तंभकार हैं। 
  • संपर्क  9425022703 
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