संदीप पौराणिक@भोपाल। 'राजनीति में कोई किसी का स्थाई दोस्त और स्थाई दुश्मन नहीं होता', मगर यह कहावत भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की दिग्गज नेता उमा भारती पर लागू नहीं होती, क्योंकि उनके गृह राज्य मध्य प्रदेश में उनके दुश्मन अब भी दुश्मन ही बने हैं।
यही कारण है कि भाजपा की राज्य इकाई की चुनाव के लिए बनाई गई तमाम समितियों में उन्हें स्थान न देकर राज्य में उनकी राजनीतिक सक्रियता पर लगे विराम को और आगे बढ़ा दिया गया है।
राज्य में वर्ष 2003 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उमा की अगुवाई में जीत दर्ज कर सत्ता हासिल की थी। उनको सफलता का न केवल श्रेय मिला बल्कि पार्टी ने उन्हें सत्ता की कमान सौंपते हुए मुख्यमंत्री भी बनाया। मगर राजनीति के खेल में वह जल्द ही मात खा गईं। पहले मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा और आगे चलकर उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता भी देखना पड़ा।
भाजपा से बाहर होने के बाद उमा ने भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाई और वर्ष 2008 के विधानसभा चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए पांच विधानसभा क्षेत्रों से अपने उम्मीदवारों को जिताकर विधानसभा तक भेजा। उसके बाद पार्टी और उमा दोनों की तरफ से एक दूसरे के करीब आने की कोशिशें शुरू हुईं। उमा की भाजपा में वापसी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बने।
शिवराज और राज्य के अन्य नेताओं के दवाब का ही नतीजा था, कि उमा की भाजपा में वापसी तो हो गई मगर राज्य की राजनीति से उन्हें दूर रखने का अंदरूनी समझौता हुआ और इसलिए उन्हें उत्तर प्रदेश के चरखारी विधानसभा से चुनाव लड़ाया गया।
उत्तर प्रदेश के चरखरी से तो वह चुनाव जीत गईं मगर भाजपा को सफलता नहीं मिलने पर उन्होंने अपने को गंगा शुद्धिकरण के अभियान पर केंद्रित किया। अभी हाल ही में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह की टीम में उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी मिलने पर राज्य के राजनीतिक हल्कों में गर्माहट आ गई।
उमा जब भोपाल आईं तो उनका जोरदार स्वागत किया गया और ऐसा लगा कि उनका कद राज्य की राजनीति में बढ़ सकता है, मगर इसी बीच पार्टी की राज्य इकाई ने चुनाव अभियान सहित कई अन्य समितियों का गठन किया। इन समितियों में उनको जगह न देकर सत्ता और संगठन ने साफ संदेश दे दिया है कि चुनाव में उमा की कोई खास भूमिका नहीं रहने वाली है और वह उन्हें स्वीकार्य नहीं हैं।
उमा को उत्तर प्रदेश से लोकसभा का चुनाव लड़ाने की तैयारी और अब राज्य की चुनाव सम्बंधी समितियों में स्थान न दिए जाने से यह तो साफ हो ही गया है कि उमा अब अपने गृह प्रदेश में परदेसी नेता के तौर पर ही सक्रिय रह सकेंगी।
पार्टी के पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी भी उमा को प्रदेश समिति में स्थान न दिए जाने पर सीधे तौर पर तो कुछ नहीं कहते हैं लेकिन उनका कहना है कि उमा राष्ट्रीय नेत्री हैं और उनकी जिम्मेदारी राष्ट्रीय नेतृत्व को तय करनी है। वह इतना जरूर कहते हैं कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी।
राज्य के वरिष्ठ पत्रकार शिव अनुराग पटैरिया कहते है कि उमा ने कांग्रेस को सत्ता से विस्थापित किया था और भाजपा के निहित स्वार्थी लोगों ने कांग्रेस से मिलकर उमा को ही विस्थापित कर दिया। वह आगे कहते हैं कि उमा जननेता हैं, राजनेता नहीं। उन्हें राजनीतिक सौदेबाजी नहीं आती और वह जुझारू नेता हैं। यही कारण है कि वह अपना नफा नुकसान सोचे बगैर विरोधियों से भिड़ जाती हैं।
राज्य में उमा के समर्थकों की कमी नहीं हैं, मगर उनकी सक्रियता न बढ़ने से सभी उनसे छिटकते जा रहे हैं। आगामी विधानसभा चुनाव में उनकी भूमिका न होने का संदेश देकर संगठन ने उन्हें राज्य के भीतर और कमजोर कर दिया है। यही तो राजनीति का खेल है, पार्टी को सत्ता में लाने की बिसात कोई बिछाता है और राजा कोई और बन जाता है।