स्तूप का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद में प्राप्त होता है जहां अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं को स्तूप कहा गया है। स्तूप वैदिक काल से ही भारत में प्रचलित शवाधान टीले थे। यह अंत्येष्टि मेघपुंज का पारंपरिक निर्देशन है। महापरिनर्वाण सूत्र में महात्मा बुद्ध अपने शिष्य आनन्द से कहते हैं- "मेरी मृत्यु के अनन्तर मेरे अवशेषों पर उसी प्रकार का स्तूप बनाया जाये जिस प्रकार चक्रवर्ती राजाओं के अवशेषों पर बनते हैं- (दीघनिकाय- १४/५/११)।
सबसे प्राचीन स्तूप कौन सा है और कहां पर है
स्तूप समाधि, अवशेषों अथवा चिता पर स्मृति स्वरूप निर्मित किया गया, अर्द्धाकार टीला होता था। इसमें मृतकों के अवशेष और राख को रखा जाता था। स्तूप का शाब्दिक अर्थ होता है - ढेर या डुहा! मौर्य काल में विशेषकर अशोक के राज्यकाल के दौरान स्तूप कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया। यह स्तूप धीरे-धीरे स्मारक के रूप में अद्भुत वास्तुकला का गौरवपूर्ण प्रतिनिधित्व करने लगा। जिसका सबसे शानदार उदाहरण है- मध्यप्रदेश के सांची का स्तूप। अब तक हुए खोज में उत्तर प्रदेश के पीपरहवा का स्तूप सबसे प्राचीनतम स्तूप माना जाता है।
स्तूप की संरचना को देखा जाए तो; स्तूप अर्धवृत्ताकार संरचना है जो चबूतरे के ऊपर एक उल्टे कटोरी की आकृति के रूप में है। इस अर्धवृत्त को अंड कहा जाता है। इसके शीर्ष पर हर्मिका नामक संरचना होती है जहां अवशेष रखे जाते हैं। यह स्तूप का सबसे पवित्र भाग होता है। इस हर्मिका के मध्य में एक यष्टि लगी होती है जिसके सिर पर तीन छत्र होते हैं जो श्रद्धा, सम्मान और उदारता का प्रतीक है। चबूतरे के चारों ओर घूमने के लिए प्रदक्षिणा पथ होता है।
यह पूरी संरचना एक वेदिका से घिरी होती है जहां तोरण द्वार या प्रवेश द्वार बनाया जाता है। स्तूप का कोर, कच्ची ईंटों का बना होता था जबकि बाहरी सतह का निर्माण पकी ईंटों से किया जाता था। जिसे प्लास्टर की मोटी परत से ढका जाता था। बाद में आगे चलकर स्तूपों में अलंकरण का प्रयोग होने लगा और चित्रों के माध्यम से कथानक का अंकन किया जाने लगा। मेधी और तोरणों को लकड़ी की मूर्तियों द्वारा सजाया जाने लगा।