संजय पी लोढ़ा, झाबुआ से। श्राद्व पक्ष के सोलह दिन¨ में अपने पितरों के तपर्ण के लिए अनुष्ठान निर्धारित परपंरा के अनुसार कर रहे है, लेकिन भोग की सामग्री अपने पूर्वजों तक पहुॅचाने का एक माध्यम कौओं का अभाव साफ नजर आ रहा है।
या कि तर्पण पूजन के बाद भोग का एक हिस्सा कौओ के लिए घर की छत और मुंडेर पर रखकर उनकी राह ताकते है, लेकिन मान मन्नोव्वल के बावजूद वे नही आ रहे है ऐसे मे श्रद्वालु पेशोपश मे है आखिर करे क्या ? विकल्प के रूप मे लोग यह सामग्री गाय, श्वान को खिलाने के साथ कुॅऐ व सरोवर मे प्रवाहित कर रहे है। महॅगाई के चलते तथा समय के साथ इस पर्व मे भी बदलाव आ रहे है ।
वृक्षों के साथ कौए भी हुए नदारद
ग्रामों के साथ शहरों मे प्रवेश करते ही आपको एक कर्कश आवाज से रूबरू होना पडता था जो आसपास के वृक्षो से आती थी, ऐसे मे रहवासियो को अपने यहाॅ मेहमान आने का संदेश भी देते थे लेकिन अब ये भी दुर्लभ हो गये है । शहरी क्षेत्रो मे भी पेड़ों के काटने के कारण इनका आशियना भी नही रहा ,एक और जहाॅ हरियाली का घनत्व कम हो रहा है वही दूसरी और आबादी का घनत्व बढ़ रहा है ऐसे मे इन काग महाशयों को भी अज्ञातवास पर निकलना पड़ा है।
मान्यता मक्कार की लेकिन स्थान स्वर्ग में
अपनी आवाज के कारण चर्चित इस पक्षी को चालाकी के कारण भी जाना जाता है काले रंग का यह पक्षी ढीढ के साथ चौकन्ना भी है यही नही दुसरे पक्षियो के भोजन को भी यह मौका देखकर चट कर जाता है। ऐसे मे आम जिंदगी मे मक्कार कहे जाने वाले इस काग को शास्त्र अनुसार स्वर्ग का अधिकार मिला हुआ है। विष्णु पुराण के अनुसार श्राद्व पक्ष मे कौओं को भोजन कराने से पितृ तृप्त होते हैं ,युधिष्टिर के साथ कौओं को भी स्वर्ग का अधिकार मिला हुआ है इससे वे दीर्घजीवी बने।
श्राद्व रस्में भी हुई औपचारिक
मॅहगाई का असर अब इस पर्व पर देखने को मिल रहा है, दूध के साथ राशन सामग्री के भावों मे अनाप शनाप वद्वि ने कई पर्वों परंपराओं मे बदलाव ला दिया है यों कि कभी ये पर्व न केवल अपने परिवार वरन अपने परिचितों और ब्राह्णणों को एक साथ भोजन करा कर पुण्य प्राप्ति का रास्ता माना जाता था, लेकिन धीरे धीरे इसमे भी बदलाव आ गया है।
अब ऐसे अवसरों पर मात्र अपने निकट के परिजनों को ही बुला कर इस परंपरा का निर्वहन किया जा रहा है। कई परिवारों मे अब यह तो औपचारिक रूप से खीर बनाकर श्राद्व की रस्म पूरी की जा रही है जिससे इस पक्ष मे जहाॅ दूध की मांग पचास फीसदी तक बढ़ जाती थी वह धीरे धीरे दस पंद्रह फीसदी तक ही सिमट गई है।