शिवपुरी में संजय बेचैन के लिए क्यों उठ रही है कांग्रेस से टिकिट की मांग

उपदेश अवस्थी/भोपाल। क्या कोई पत्रकार इतना लोकप्रिय हो सकता है कि आदिवासी ग्रामीण उसे अपना प्रतिनिधि मान लें और हर समस्या के लिए उसी के दरवाजे खटखटाएं जबकि वो किसी राजनैतिक दल का सदस्य भी ना हो।

90 के दशक से पहले की बात करें तो शायद हो सकता था परंतु 21वीं सदी में यह बड़ा असंभव सा लगता है, परंतु शिवपुरी में यह उदाहरण दिखाई दे रहा है। शिवपुरी के एक मास्टर भैंरोलालजी के चार बेटों में तीसरे नंबर का बेटा जिसे लोग संजय बेचैन के नाम से जानते हैं, ना तो नाजों से पला बढ़ा और ना ही विरासत में कुछ ऐसा मिला जिसे भरपूर कहा जा सके।

मैं संजय ​को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, काफी सालों हमने साथ साथ पत्रकारिता की, बाद में मैं भोपाल चला आया और संजय बेचैन ग्वालियर में झांसी से प्रकाशित होने वाले भारत के सबसे बड़े पत्र समूह दैनिक जागरण के संपादक की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं।

मुझे बहुत ठीक से याद है, ग्वालियर से बंद हो चुके एक अखबार 'आज' से अखबार की दुनिया में कदम रखने वाले संजय ने 100 कॉपियों की ऐजेंसी से अपनी करियर की शुरूआत की। जब वो नवभारत के ब्यूरोचीफ बने और शिवपुरी में नवभारत ने दैनिक भास्कर को पीछे छोड़ा तब माना जा रहा था कि यह संजय बेचैन के जीवन का सबसे बेहतरीन समय है जो दोबारा नहीं आएगा, लेकिन आज मैं कह सकता हूं कि वो केवल भाग्य नहीं था, संजय का परिश्रम था जो लगातार बना हुआ है।

एक संपादक की कुर्सी पर बैठने के बाद अमूमन पत्रकार स्वयं को इतना रिजर्व कर लेते हैं कि आम आदमी क्या, खासमखास तक को मुलाकात का अवसर देने से पहले विचार करते हैं लेकिन संजय बेचैन जितना उंचाई तक पहुंचे उससे कहीं ज्यादा जमीन के नीचे जड़ों को मजबूत करने रहे। यह कला दुनिया में बहुत कम लोगों में दिखाई देती है। आज शिवपुरी जिले का एक फटेहाल आदिवासी जिसकी सरकारी दफ्तर का बाबू भी नहीं सुनता, सीधे संजय के घर में जा घुसता है और संजय भी सारे काम छोड़ छाड़कर पहले उसकी बात सुनते हैं।

संजय बेचैन ने आदिवासियों को उनके अधिकार दिलाने और उन्हें संगठित करने के लिए 'सहरिया क्रांति' की शुरूआत की। लोगों को मजाक लग रहा था, जहां कच्चे रास्ते भी खत्म हो जाते हैं, वहां रहने वाल आदिवासियों के बीच जाकर उनसे बात करना, शहरों में रहने वाले किसी भी आदमी के लिए नामुमकिन जैसा है, लेकिन संजय ने 'सहरिया क्रांति' को नियमित किया। बिना किसी लालच के, उनसे नियमित संपर्क बनाए रखा।


अभी कुछ दिनों पहले 'सहरिया क्रांति' का एक साल पूरा होने पर पहली बार संजय के सहरिया आदिवासी शिवपुरी शहर में दिखाई दिए। सैंकड़ों नहीं, हजारों नहीं, उससे भी कहीं ज्यादा, रेला का रेला चला आया। शिवपुरी का प्रशासन और राजनीति भौंचक्क रह गई। इतना जबर्दस्त जनसमर्थन, क्या किसी पत्रकार को मिल सकता है। हालात यह हो गए कि शिवपुरी के करोड़पति भाजपा नेताओं को रक्षाबंधन के अवसर पर आदिवासियों के बीच जाकर राखियां बंधवाना पड़ीं। जी हां, भाजपा के वो नेता, जो आदिवासी की महिलाओं को .... की नजर से देखते थे, इस बार उन्हें अपनी बहन का दर्जा देते दिखाई दिए।

अचानक ही शिवपुरी की राजनीति प्रेशर में आ गई। अब लोगों का दवाब है कि संजय बेचैन को शिवपुरी से विधानसभा चुनावों में बतौर प्रत्याशी उतारा जाना चाहिए। पीसीसी में विचार मंथन का दौर जारी है। कांग्रेस के लिए एक एक सीट महत्वपूर्ण है और सभी जानते हैं कि यदि शिवपुरी में भाजपा की ओर से यशोधरा राजे सिंधिया चुनाव मैदान में आ गईं तो उनका मुकाबला करने लायक कांग्रेस के अकाउंट में तो कोई नेता मौजूद नहीं है।

सिंधिया विरोधियों पर दांव लगाने का उपक्रम पिछले 20 सालों से वहां हो रहा है, लेकिन हर बार सिंधिया की बागी टिकिट तक तो दम ठोकते हैं, बाद में वापस गुप्त समझौता कर लेते हैं। दमदारी से चुनाव लड़ते ही नहीं, जीतेंगे कैसे। हरिबल्लभ शुक्ला जैसे कद्दावर सिंधिया विरोधी भी पोहरी से टिकिट की लालसा में सिंधिया केंप के बाहर खड़े दिखाई दे रहे हैं।

ऐसे हालात में संजय बेचैन के नाम पर विचार किया जाना तर्कसम्मत हो सकता है। लोगों का कहना है कि यह अकेला ऐसा युवा है जिसे संघर्षों में जीतने की कला आती है। वो चुनौतियों से ही खेलता आया है और शिवपुरी जिले के गांव गांव तक उसकी मजबूत पकड़ बनी हुई है।

अब देखना यह है कि कांग्रेस के दिग्गज शिवपुरी की सीट को सिंधिया के कोटे से कांग्रेस के अकाउंट में ट्रांसफर करवा पाते हैं या टिकिट वितरण की टेबल पर ही यह चुनाव भी .....।

संजय बेचैन की सहरिया क्रांति के बारे में अधिक जानकारी के लिए यहां क्लिक करें

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