दहेज में हाथी घोड़े नहीं गडिया घुल्ले ही सही

shailendra gupta
रहली से योगेश सोनी। मकर संक्राति के अवसर पर शक्कर बनाये जाने वाले व्यंजन जिन्हें बुदेलखड में  गडिया घुल्लों के नाम से जाना जाता है। उनका ऐतिहासिक महत्व तो है ही सामाजिक और धार्मिक महत्व भी देखने को मिलता है।

मकर संक्रति के दिन भगवान को अर्पित किये जाने वाले गडिया घुल्ला का संबंध महाभारत काल से चला आ रहा है। व्यवसायी शंभू नेमा के अनुसार जैसा कि उन्हे पूर्वजों ने बताया था कि गडिया घुल्ला की परंपरा द्वापर युग के महा भारत काल से चली आ रही है। शंभू नेमा के अनुसार महाभारत में महा युद्ध हुआ था और लाखों सेनिक हाथी घोडे मारे गये थे। उन्ही की आत्का की शांति के लिये शक्कर के ये हाथी घोडे जेवर इत्यादि बनाकर भगवान को इस भाव से अर्पित किये जाते है कि मारे गये वीर योद्धाओं की आत्मा को शांति मिले।

गडिया घुल्लों का अपना सामाजिक महत्व भी कम नही है। डॉ घनश्याम नेमा के अनुसार गडिया घुल्लों की परंपरा राजस्थान से शुरु हुई है। डॉ नेमा के अनुसार राजस्थान में राजा महाराजा अपनी कन्याओं के विवाह में हाथी घोडे महल इत्यादि दिया काते थे लेकिन गरीब लोग एैसा नही कर पाते अतः राजस्थान के लोगों ने यह तरीका अपनाया कि प्रतीकात्मक रुप से शक्कर के बने हाथी घोडे महल इत्यादि देने की परंपरा प्रारंभ हुई थी। जो धीरे धीरे अन्य स्थानों में लोगों ने अपनाना शुरु कर दिया।

गडिया घुल्लों के आकार रुप को देखते हुये सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनका महत्व आज का नही है बल्कि पुरातन काल से चला आ रहा है। बुदेलखंडमें लोग संक्राति पर सबसे पहले तिल के साथ गडिया घुल्लों को भगवान शिव को अर्पित करते है। और प्रसाद के रुप में इनका वितरण किया जाता है। वही नये रिश्तों की शुरुआत में लडका और लडकी पक्ष दोनों और से समधी समघन को गडिया घुल्ला भेजे जाने की परंपरा आज भी चली आ रही है। इनके शुरु होने की प्रथा में सत्यता चाहे जो भी हो पर आज भी रिश्तों में मिठास घोलने का काम करते है गडिया घुल्ला।

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