उपदेश अवस्थी/लावारिस शहर। एक जमाना हुआ करता था कि गांधी से कांग्रेस के तमाम गुटबाज डरा करते थे और एक वक्त यह है जब गांधी को गुटबाजों से डरकर अपने फैसले बदलने पड़ रहे हैं।
कांग्रेस की नेशनल मीटिंग में फाइनल हो गया कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं होंगे। खुद सोनिया गांधी ने इसका एलान किया और तेज आवाज में किया। इससे पहले दैनिक भास्कर चीख रहा था कि उन्हेोने हां कर दी है। सवाल यह है कि एक ही दिन में ऐसा क्या हुआ कि राहुल की हां, अचानक ना में बदल गई।
सामान्यत: मध्यप्रदेश कांग्रेस के लीडर्स में गुटबाजी के आरोप नेशनल लेवल तक सुनाई देते हैं। जोर जोर से चिल्लाया जाता है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस के नेता गुटबाजी करते हैं। यह आरोप शत प्रतिशत सही है परंतु गुटबाजी केवल मध्यप्रदेश तक ही सीमित नहीं है। यह नेशनल लेवल पर भी है और गांधी परिवार इसी हाईप्रोफाइल गुटबाजी में फंस गया है।
अभी अभी टीवी पर सोनिया गांधी का लाइव भाषण देखा, इतनी बेवस इतनी परेशान गांधी इससे पहले कभी नहीं देखी। अचानक इंदिरा गांधी की याद आ गई। जब वो कांग्रेस का नेतृत्व किया करतीं थीं तो किसी नेता में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो उनके भाषण के बीच में टीका टिप्पणी कर सके। अनुशासन इतना कड़ा होता था कि सब के सब टकटकी लगाए ध्यान से इंदिरा जी को सुना करते थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि पूरी कांग्रेस में उनका खौफ इतना ज्यादा हुआ करता था कि लोग रात के अंधेरे में चोरी छिपे गुटबाजी किया करते थे परंतु रोशनी में आते ही कांग्रेस के काम में जुट जाते थे।
और एक आज का दिन है जब इंदिरा गांधी की बहू और राजीव गांधी का बेटा कांग्रेस के हाईप्रोफाइल गुटबाजी में पूरी तरह से उलझ गए हैं। वो सबको बैलेंस करते हुए दिखाई दे रहे हैं। संभावित नुक्सान से डर रहे हैं, खुद पर भरोसा नहीं रहा कि वो अपनी दम पर कांग्रेस को खड़ा कर सकते हैं और इसके लिए उन्हे किसी गद्दार या मौकापरस्त नेता की जरूरत नहीं है।
बातें बहुत सारी है परंतु अंत में सिर्फ इतना कि एक गांधी ने कांग्रेस को जनता से जोड़ा, दूसरी गांधी ने फिर से कांग्रेस को देश का सबसे ताकतवर संगठन बना दिया और अब दो तीन गांधी है परंतु..... अब मिलावट तो सारी चीजों में हा गई। खालिस गांधी भी नहीं रहे।