राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश की 15 वीं लोकसभा का कार्यकाल समाप्त हो गया | जाते-जाते एक सवाल अनुत्तरित रह गया की इस देश को कौन चला रहा है? राजनीतिक दलों की लगाम किसके हाथ में हैं ? वो कौन सी शक्तियाँ है जो पर्दे की पीछे से भारी-भरकम मदद चुनाव प्रचार के लिए करती हैं और सदन में उनके नाम पर सन्नाटा छा जाता है |
दोनों बड़े दलों पर छोटे दल आरोप लगा रहे हैं | इसे प्रमाणित करने के लिए किसी के पास कोई रसीद नहीं है, परन्तु परिस्थितियाँ बताती है, कहीं कुछ ज्यादा ही गडबड है |
सत्य तो यह है कि इस राजनीति को कॉरपोरेट वित्तीय पूंजी पालती-पोसती है और इसका वास्तविक उद्देश्य उसी कॉरपोरेट जगत को मजबूती प्रदान करना होता है, न कि उस पहचान-समूह के हितों के लिए कुछ करना, जिनके नाम पर वह राजनीति संगठित होती है। राजनीति में आई कमजोरी का अहम असर उन सब पर है। इस तरह की राजनीति ऐसे किसी खास पहचान-समूह को ‘पहचान के नाम पर सौदेबाजी की राजनीति’ के माध्यम से एक उछाल प्रदान करती है जो अपने वर्गीय संगठनों के तहत कोई असरदार काम नहीं कर सकते।
इस राजनीति से ‘पहचान की फासीवादी राजनीति’ को भी बल मिलता है क्योंकि कॉरपोरेट-वित्तीय अभिजात का वर्चस्व इस तरह की राजनीति को बढ़ावा देता है। जहां तक ‘प्रतिरोध के पहचान आंदोलनों’ का सवाल है, वर्गीय राजनीति के चौतरफा कमजोर पड़ने से उनमें भी प्रगतिशीलता का तत्त्व कमजोर हुआ है और इससे वे भी अधिक से अधिक ‘सौदेबाजी की पहचान राजनीति’ की ओर धकेल दिए गए हैं।
अगली लोकसभा इससे मुक्त होगी यह कहना मुश्किल है | कोशिश तो कीजिये |