प्रकाश हिन्दुस्तानी/आशीष शर्मा 'ऋषि'। शिवराज और मोदी को एक साथ देखिए। दोनों आरएसएस के खास। दोनों ने हेट्रिक बनाई। एक सुषमा को प्रदेश से लड़वाते थे, एक आडवाणी को। दोनों दिल्ली की राजनीति को अच्छी तरह समझते हैं। दोनों ने पहले अपने वरिष्ठों को ठिकाने लगाया। दोनों ने सरकारी तंत्र का भरपूर इस्तेमाल किया। दोनों हमेशा ही 'प्रो एक्टिव' रहे। दोनों ने टिकट बांटने में अपनी वाली चलाई। दोनों अपनी छवि को लेकर अतिरिक्त सतर्क। दोनों की छवि 'ईमानदार' और कर्मठ नेता की| दोनों साधारण परिवार के। दोनों में से कोई भी सवर्ण छवि का नहीं। दोनों ही महत्वाकांक्षी। दोनों को अपने विधायकों से ज्यादा अफसरों पर भरोसा। एक के लिए नारा बना - फिर भाजपा, फिर शिवराज, दूसरे के लिए बना - अबकी बार मोदी सरकार। एक थोड़ा मुखर तो एक अंतर्मुखी।
अब ज़रा जब इन दोनों में इतनी समानता है तो भाजपा ने मोदी को ही पीएम के लिए क्यों प्रोजेक्ट किया? मोदी के पास मुकेश अम्बानी, टाटा, अदानी, बिड़ला जैसे समर्थक हैं तो शिवराज के पास भी अनिल अम्बानी, जेपी ग्रुप, सुब्रत रॉय और सूर्यवंशी हैं। शिवराज अपनी लॉबिंग अच्छी तरह नहीं कर पाए शायद। मोदी ने जिन नेताओं को हाशिये पर पटक दिया था, शिवराज ने उन्हें माथे पर बैठा लिया। शायद चूक हो गई। मोदी ब्लंट हैं, शिवराज सॉबर।
हाल ही हुए विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को आशा से अच्छे नतीजे मिले थे। बीजेपी को मध्यप्रदेश की 230 सीटों वाली विधानसभा में 165 पर जीत मिली। कांग्रेस 58 सीटों पर सिमट गई। कांग्रेस को 2008 के मुकाबले 13 सीटें कम मिली हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में बीजेपी को बंपर सफलता मिली। बीजेपी को पिछले चुनाव के मुकाबले 22 सीटें ज्यादा मिली हैं। बीजेपी को 46 और कांग्रेस को 37 प्रतिशत वोट मिले। शिवराज शिंह ने यह काम कैसे किया और क्या यही फार्मूला लोकसभा के लिए भाजपा अपना रही है? क्या हाल के विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए ड्रेस रिहर्सल था? जो फार्मूले शिवराज सिंह ने या भाजपा ने अपनाये, कमोबेश वही फार्मूले भाजपा मोदी के लिए अपना रही है। देखते हैं --क्या दिल्ली के नतीजे भी मध्यप्रदेश या राजस्थान की तरह होंगे? एक बानगी :
मध्यप्रदेश में विधान सभा चुनाव के कई महीने पहले से सरकार की सफलताओं के प्रचार प्रसार का अभियान हो हो गया था। भजपा के नेताओं का लक्ष्य था महिला, ग्रामीण, दलित और युवा वोटरों का सहयोग और समर्थन पाना। किसानों के नेता के रूप में शिवराज की छवि बनाई गई। वे प्रदेश भर की बेटियों के मामा और महिलाओं के भाई के रूप में प्रचारित किये गए। जन आशीर्वाद यात्रा के बहाने मुख्यमंत्री ने चुनाव के ठीक पहले सभी जिलों की यात्राएं की और सरकारी योजनाओं के प्रचार के साथ ही भाजपा कार्यकर्ताओं को सक्रिय कर दिया। मुख्यमंत्री ने पांच साल में शायद ही पत्रकारों से बात की हो, लेकिन जन आशीर्वाद यात्रा में पत्रकारों को खासी तवज्जो दी और उनके शिकवे दूर हो गए. प्रदेश का जनसम्पर्क विभाग खुले आम शिवराज सिंह चौहान का प्रचार विभाग बन गया। लोकप्रिय अखबारों और प्रदेश के टीवी चैनलों में विज्ञापनों की झड़ी लगा दी गई|
हर जिले की यात्रा लाइव दिखाई जा रही थी। चुनाव के पहले ही साफ़ रणनीति बन गई थी कि शिवराज को ब्रांड के रूप में प्रचारित कर वोट मांगे जाएंगे। टीवी और अखबारों में शिवराज और केवल शिवराज ही दिखाई दे रहे थे। होर्डिंग्स में शिवराज, सोशल मीडिया में शिवराज, एफएम रेडियो पर शिवराज। शिवराज के अलावा भाजपा के भी किसी नेता के दीदार नहीं हो रहे थे। अपनी स्थिति मज़बूत बनने के साथ ही शिवराज ने अपने सभी प्रतिस्पर्धियों पर नकेल कस दी थी। प्रभात झा परिदृश्य से बाहर, विजय शाह भी बाहर, उमा की एंट्री बंद, कैलाश विजयवर्गीय को कोई श्रेय नहीं, नरोत्तम मिश्र, अजय विश्नोई, बाबूलाल गौर की घेराबंदी पार्टी के भीतर ही। फिर टिकट बांटने के समय अपनों की ही 'नसबंदी' कर दी गई। जो उनके खेमे के थे, उनकी हार पुख्ता करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई।
दोनों के फार्मूले सामान हैं तो अब सवाल यह है कि क्या मोदी भी वैसे ही सफल होंगे जैसे शिवराज हुए हैं? और अगर मोदी पीएम बन गए तो क्या वे शिवराज को केंद्र में बुलाकर एक तीर से दो निशाने लगाएंगे?