राकेश दुबे@प्रतिदिन। भले प्रधानमंत्री स्थिर कर ढांचा और निवेश संबंधी नीतियों आदि के मामले में पारदर्शिता लाने का दावा कर रहे हों, पर हकीकत यह है कि अभी तक उनकी सरकार के ज्यादातर फैसले पुरानी सरकार की बनाई रूपरेखा पर ही आधारित हैं। इसलिए भूमि अधिग्रहण जैसे उसके अध्यादेश को लेकर स्वदेशी जागरण मंच सरीखे भाजपा के आनुषंगिक संगठनों की तरफ से ही विरोध के स्वर उठने शुरू हो गए हैं।
ऐसा भी नहीं है कि पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार के समय प्रत्यक्ष निवेश आकर्षित करने के प्रयास कम हुए। उनमें कामयाबी नहीं मिल पाई तो जो दिक्कतें उस वक्त थीं, वे अब भी बनी हुई हैं। पहली बात यह कि बैंक दरों में लगातार परिवर्तन करने, औद्योगिक समूहों को रियायतें देने आदि के बावजूद पिछले कुछ सालों में न तो महंगाई का रुख नीचे की ओर आ रहा है और न विकास दर अपेक्षित गति से आगे खिसक पा रही है। औद्योगिक विकास पर जोर होने के बावजूद गरीबी की दर रोक पाना कठिन बना हुआ है। भ्रष्टाचार के चलते विकास योजनाओं में सुस्ती बनी हुई है। ये स्थितियां प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की राह में बड़े रोड़े हैं।
इन स्थितियों से पार पाने की कोई तैयारी नरेंद्र मोदी सरकार के पास फिलहाल नजर नहीं आ रही। यह ठीक है कि भारत एक बड़ा बाजार है, पर इस आधार पर विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने का नतीजा अब तक का यही है कि निर्यात के क्षेत्र में अपेक्षित गति आने के बजाय आयात बढ़ता गया है। फिर बड़े उद्योग समूहों पर अधिक ध्यान दिए जाने की वजह से छोटे और मझोले उद्योग लगातार बुरी दशा को प्राप्त होते गए हैं।
जबकि हकीकत यह है कि इन उद्योगों में बड़े उद्योगों की तुलना में रोजगार सृजन की क्षमता कहीं अधिक है। गरीबी से पार पाने का कारगर तरीका यही हो सकता है कि रोजगार के अधिक से अधिक नए अवसर पैदा किए जा सकें। जिन औद्योगिक समूहों को निवेश के लिए आकर्षित कर नरेंद्र मोदी सरकार अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने का दम भर रही है, उनके जरिए गरीबी और रोजगार संबंधी समस्या से पार पाने में किस हद तक मदद मिलेगी, इस पर गंभीरता से विचार की जरूरत है।
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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