यह धनबल चुनावों को कहाँ ले जायेगा ?

राकेश दुबे@प्रतिदिन। भोपाल निगम, विधान सभा, लोकसभा और अब पंचायत के चुनाव भी देखे| सभी में एक समान तथ्य है| धन का अधिकतम प्रयोग| वैसे राजनीतिक दलों की ओर से प्रचार पर किए जाने वाले खर्चों को लेकर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं। निर्वाचन आयोग ने चुनाव खर्च की सीमा भी तय कर दी है। कहते वह लगातार इस पर निगरानी रखता है, यह निगरानी खिन दिखती तो नहीं है। भारतीय जनता पार्टी हर जगह धन के बल पर आक्रामक प्रचार कर रही है, वह उसके सादगी के दावों का विरोधाभासी है।

विचित्र है कि पिछले कई सालों से चुनावों में बेलगाम खर्च के मसले पर लगातार सवाल उठने के बावजूद ज्यादातर राजनीतिक दल न अपने ऊपर लगाम कसने को तैयार हैं, न ईमानदारी से इसका ब्योरा सार्वजनिक करने की जरूरत समझते हैं। इसके अलावा, मीडिया में अनेक रूपों में आने वाले प्रचार की हकीकत भी अब छिपी नहीं है। राजनीतिक दल दावा करते रहे हैं कि सारा खर्च वे अपने सदस्यों और समर्थकों की ओर से मिले चंदों से उठाते हैं। अगर इन सबका हिसाब लगाया जाए तो क्या इतने खर्च की व्यवस्था केवल समर्थकों या सदस्यों से जमा किए गए धन से की जा सकती है?

ऐसी खबरें आम हैं कि अनेक पार्टियों को बहुत सारा पैसा औद्योगिक घरानों से मिलता है। देश की राजनीति में काले धन की बड़ी भूमिका होने की बातें भी कही जाती रही हैं, लेकिन विडंबना है कि जहां दुनिया के कई देशों में राजनीतिक दलों के लिए अपने सभी तरह के चंदों का स्रोत बताना कानूनन अनिवार्य है, वहीं भारत में लगभग सभी पार्टियां इस मसले पर पारदर्शिता बरतना जरूरी नहीं समझतीं। । प्रश्न यह है कि क्या एक लोकतंत्र पैसे के खुले प्रदर्शन पर टिके चुनाव प्रचार के बूते जिंदा रहेगा?

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