राकेश दुबे@प्रतिदिन। दिल्ली कि “वर्ल्ड क्लास सिटी” बनाने का वादा आप सहित सारे राजनीतिक दलों का था| आखिर यह 'वर्ल्ड क्लास सिटी' होती क्या है, और यह कैसे बनती है? आश्चर्य की बात तो यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान दिल्ली को रहने लायक बनाने के मुद्दे पर शायद ही किसी का ध्यान गया।
किसी भी राजनीतिक पार्टी ने अपने घोषणापत्र या भाषणों में स्वच्छ हवा के मुद्दे को प्राथमिकता नहीं दी। जबकि ताज़े आंकड़े बताते हैं कि वायु प्रदूषण के लिए कुख्यात चीन की राजधानी बीजिंग की तुलना में दिल्ली की आबोहवा 45 फीसदी ज्यादा प्रदूषित हो गई है। क्या कोई ऐसा महानगर विश्व स्तर का हो सकता है, जहां के लोग जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हों?
किसी भी राजनीतिक पार्टी ने अपने घोषणापत्र या भाषणों में स्वच्छ हवा के मुद्दे को प्राथमिकता नहीं दी। जबकि ताज़े आंकड़े बताते हैं कि वायु प्रदूषण के लिए कुख्यात चीन की राजधानी बीजिंग की तुलना में दिल्ली की आबोहवा 45 फीसदी ज्यादा प्रदूषित हो गई है। क्या कोई ऐसा महानगर विश्व स्तर का हो सकता है, जहां के लोग जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हों?
प्रति व्यक्ति आय के मामले में दिल्ली ने बेशक शानदार छलांग लगाई है। वर्ष 2004 की तुलना में 2014-14 में यहां प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हो जाने का अनुमान है। इसके बावजूद रहने लायक महौल के मामले में दिल्ली पीछे जा रही है। इसकी मुख्य वजह वायु प्रदूषण है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के 2008 के एक सर्वेक्षण के मुताबिक, दिल्ली के 32 प्रतिशत बच्चों में सांस संबंधी समस्याएं थीं, जबकि ग्रामीण बच्चों में यह आंकड़ा 18.2 प्रतिशत था। उसी सर्वेक्षण के मुताबिक, दिल्ली के 43.5 प्रतिशत स्कूली बच्चों के फेफड़े की काम करने की क्षमता घट गई है, जबकि ग्रामीण भारत के बच्चों में यह आंकड़ा 25.7 प्रतिशत था।
वर्ष 2000 में दिल्ली में पंजीकृत सभी बसों, ट्रकों, टैक्सियों और ऑटो रिक्शा में सीएनजी की व्यवस्था की गई, जिसके बाद से वायु की गुणवत्ता में सुधार भी आया, मगर सड़कों पर वाहनों की लगातार बढ़ती संख्या ने पिछले वर्षों के भीतर ही दिल्ली की हवा को पहले जैसा ही प्रदूषित बना दिया। हालांकि शहर की हवा को स्वच्छ बनाने की तमाम कोशिशें भी हुईं। मसलन, सीसा युक्त पेट्रोल को चरणबद्ध ढंग से हटाया गया, मगर इससे कुछ खास फर्क नहीं पड़ा।
इंजन की परिष्कृत तकनीक, उत्सर्जन के कड़े मापदंड, गुणवत्तापूर्ण ईंधन और यातायात प्रबंधन और नियोजन से भी स्थिति में अपेक्षित सुधार देखने को नहीं मिला। दरअसल, वाहनों की बढ़ती संख्या ने सब किए-धरे पर पानी फेर दिया।
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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