राकेश दुबे@प्रतिदिन। कांग्रेस के बारे में बहुत सी खबरें चर्चा में है किसी को कांग्रेस में विभाजन दिखाई दे रहा है तो कोई कांग्रेस को फिनिक्स कि भांति राख से पुन: पैदा होने कि उम्मीद है | दिल्ली विधान सभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद कांग्रेस में आत्ममंथन के स्थान पर निंदा राग शुरू हो गया है | राहुल गाँधी से लेकर अजय माकन तक सब कि निंदा हो रही है | कुछ चतुर नेता इसमें भी अपनी हैसियत बढ़ाने घटाने का खेल खेल रहे हैं |
डॉ असल कांग्रेस ने कभी समझने की कोशी ही नहीं की |जैसे अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के रामलीला मैदान में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में जिस तरह लोगों का गुस्सा नजर आया था, उसे कांग्रेस के नेताओं ने नजरंदाज किया । जबकि वह कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी थी। उसके बाद २०१३ में दिल्ली विधानसभा चुनाव में तीन बार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को जब अरविंद केजरीवाल ने पराजित किया और कांग्रेस आठ सीटों में सिमट गई थी, तब तक खतरे की घंटी की गूंज दूर तक सुनाई देनी लगी थी। इसके बावजूद कांग्रेस नेतृत्व ने मानो उसे अनसुना कर दिय |
लोकसभा चुनाव में मिली पराजय के बाद पार्टी ने आत्ममंथन की औपचारिकता जरूर पूरी की, मगर उसमें न तो कांग्रेस गंभीर थी और न ही ईमानदार । इसमें पार्टी को पुनर्जीवित करने की कोई दूरदृष्टि ही नहीं थी। दरअसल पूरी कवायद इस पर थी कि मां-बेटे पर कोई आंच न आए। कहा गया कि पार्टी ने तो बहुत कुछ किया था, लेकिन सरकार (मनमोहन सिंह सरकार) अपनी उपलब्धियों को प्रचारित करने में नाकाम रही। कांग्रेस के आधारहीन, रीढ़िविहीन नेता सोचते हैं कि परिवार का कोई न कोई सदस्य इस बूढ़ी पार्टी को उबारने के लिए मसीहा बनकर आएगा। शुरू में ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस नेता यह उम्मीद कर रहे थे कि मोदी सरकार अपने भारी भरकम वायदों को पूरा करने में नाकाम साबित होगी और लोगों का उससे भ्रम टूटेगा और कांग्रेस फिर सत्ता में लौट आएगी। इससे बड़ी मासूमियत कुछ और हो सकती है क्या? इसी भ्रम और उहापोह से कांग्रेस अब तक मुक्त नहीं हो सकी है |
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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