राकेश दुबे@प्रतिदिन। और दिल्ली के चुनाव हो गये नतीजे भी आ ही जायेंगे पर पिछले कि चुनावों से खड़े यक्ष प्रश्न ज्यों के त्यों हैं| क्या राजनीतिक दल वित्तीय संव्यवहार में पारदर्शिता अपनाएंगे ? उत्तर, उधर से आने की सम्भावना नहीं है क्योंकि प्रमुख राजनीतिक दलों में अपने फंड की एक-एक पाई के स्रोत को सार्वजनिक न करने को लेकर एका है| इस विषय पर बयानबाजी एक सीमा तक ही होती है और फिर सब चुप हो जाते हैं| इस बार भाजपा ने किन्हीं कारणों से 50-50 लाख के चंदे को मुद्दा बनाया है| सवाल यह है सात माह से ‘आप’ की वेबसाइट पर इस चंदे की जानकारी है, तो सरकारी एजेंसियों ने इसे अनदेखा क्यों किया? और अब कौन कार्रवाई से रोक रहा है ?
यह एक रहस्य ही है कि अपने देश के राजनीतिकों की फंडिंग कौन करता है। दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट के अनुसार कांग्रेस की कुल आय का 93.8 प्रतिशत और भाजपा की कुल आय का 91.3 प्रतिशत का स्रोत सार्वजनिक नहीं किया जाता है| इसे अघोषित स्रोत की श्रेणी में रखा जाता है, क्योंकि कानूनी तौर पर 20,000 से कम के चंदे का स्रोत बताने की बाध्यता नहीं है| 1985 से पहले बड़े औधोगिक चंदे पर प्रतिबंध था| अब तो चुनाव के पहले ही भरी भरकम मदद ले ली जाती है| पहले यह प्रतिबन्ध भी राजनीतिक कारणों से था| 1969 में स्वतंत्र पार्टी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए सिरदर्द बनी हुई थी| स्वतंत्र पार्टी को बड़े बिजनेस समूहों का समर्थन मिलता था और धन भी|
स्वतंत्र पार्टी के वित्तीय स्रोत को खत्म करने के लिए इंदिरा गांधी ने इस तरह के चंदे पर प्रतिबंध लगा दिया और यहीं से राजनीति व चुनाव में कालेधन की भूमिका कि शुरूआत होती है| 1985 में चुनाव सुधारों की दिशा में कदम बढ़ाते हुए सरकार ने प्रावधान किया कि कॉरपोरेट्स अपने पिछले तीन साल के औसत मुनाफे का पांच फीसदी राजनीतिक दलों को दान या चंदे के रुप में दे सकते है| अब घाटे मुनाफे का लेख जोखा दरकिनार कर मतलब निकलने के अवसर का इंतजार होता है| राजनीतिक दल भले ही इस विषय को भुलाने की कोशिश करें, हमे देशहित में याद रखना होगा|
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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