बदलाव चाहिए, तो जनता भी बदले

अरुण तिवारी। दिल्ली जनादेश-2015 को किसी पार्टी के पक्ष अथवा विपक्ष में देखे जाने से ज्यादा जरूरत, जनप्रतिनिधि संस्कारों में बदलाव, बुनियादी जरूरतों की पूर्ति और आत्मसम्मान की जनाकांक्षा के व्यापक उभार के संकेत के रूप में देखे जाने की है। यह संकेत ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए हैं, चंूकि दिल्ली की आबादी अपने आप में भिन्न विचार, वर्ग और प्रांत प्रवासियों का आईना है। 

दिल्ली की जनता ने स्पष्ट किया है कि कोई मतदाता सिर्फ एक निर्जीव आंकङा या गणितीय आकलन नहीं होता; उसके भीतर एक जीता-जागता दिल और विवेक भी वास करता है। उसने इस आशा को बलवती किया है कि धनबल, बाहुबल और दंभ की राजनीति को ठंेगा दिखाया जा सकता है। जाति-धर्म-वर्ग आधारित ’वोट बैंक’ की सारी दीवारों ढहाई जा सकती हैं। उसने इच्छा जाहिर की है कि वह सिर्फ सत्ता के पहरेदार नहीं बदलना चाहता, वह सत्ता-सरोकार और जनप्रतिनिधि संस्कारों में भी व्यापक बदलाव का इच्छुक है। जनादेश गवाह है कि दिल्ली जैसे बङे महानगर की जनता भी अभी मंहगी गाङियों, झक सफेद चमचमाती पोशाकों और गुमान से भरी आवाजों में अपना प्रतिनिधित्व नहीं देखती। 

इससे यह भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस दिन छोटे शहरों, कस्बों और गांवों की जनांकाक्षा जोर मारेगी, उस दिन जनप्रतिनिधित्व के कैसे-कैसे अक्स उभरकर सामने आयेंगे। यह चेतावनी है कि जन प्रतिनिधि सावधान हो जायें। जनता चाहती है कि वे स्वयं को जनता का शासक मानने की बजाय, जनता का प्रतिनिधि ही मानें। वे जनता की तरह दिखें भी और उनका विचार-व्यवहार भी जनता की तरह हो। यदि वे नहीं बदले, तो जनता उनकी जगह किसी अपने से दिखने वाले को चुन लेगी; फिर भविष्य, चाहे जो हो।

इस बार के चुनाव नतीजों ने यह भी रेखांकित किया है कि ’वल्र्ड क्लास’ सपने दिखाने से पहले, जनप्रतिनिधि समझे कि हमारा भारत अभी भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम जनता का देश है। छोटी-छोटी जनाकांक्षाओं की पूर्ति देश की प्राथमिकता बननी चाहिए। देश में अभी भी कई करोङ लोग ऐसे हैं, जिन्हे दुकान के शो-केस में रखी मिठाई आज भी ललचाती है। चमचमाता माॅल हो या डी एम का बंगला.. दोनो के भीतर घुसने की उनकी हिम्मत आज भी नहीं होती। खेती के लिए भूमि का एक अदद् टुकङा, प्यारी सी पत्नी के लिए एक अदद् मंगलसूत्र और बेटी के लिए मनमाफिक दूल्हा.. आज भी किसी एक भारतीय गरीब के बङे सपनों में शामिल हो, तो कोई ताज्जुब नहीं।

हकीकत यह है कि हम में से ज्यादातर सरकारी स्कूल को सुधार कर, पब्लिक स्कूलों से बेहतर बना देने जैसा आदर्श सपना नहीं लेते; खुद अपने बच्चे को पब्लिक स्कूल में पढते देखना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमें सरकारी बीज, खाद, राशन और मिट्टी के तेल से लेकर सरकारी छूट वाली कोई भी चीज ब्लैक में न खरीदनी पङे। हमारी गलियां साफ व पक्की हों। पानी की गुणवत्ता-पीने योग्य, आपूर्ति-नियमित तथा बिल-कम हो। बिजली पूरी मिले। पुलिस वाला मुझे अनाथ समझने की जुर्रत न करे। मेरा मुकदमा जल्दी निबट जाये। सरकारी बाबू मुझसे विनम्रता से पेश आये। सरकारी डाॅक्टर और नर्स, हम मरीजों को भेङ-बकरी न समझें। अस्पतालों में लंबी-लंबी लाइनें छोटी हो जायें। आजकल ज्यादातर डाॅक्टर व नर्सिंग होम, जांच के नाम पर मरीजों को कंगाल करने के मर्ज से पीङित हैं। ऐसे डाॅक्टरों और निजी-सरकारी अस्पतालों का इलाज हो।’’ ये एक आम आदमी की खास जनाकांक्षायें हैं। वह पहले इनकी पूर्ति चाहता है।

केजरीवाल सरकार के 49 दिवसीय पिछले कार्यकाल का अनुभव प्रमाण है कि इंस्पेक्टर राज से मुक्ति का भरोसा देने के कारण वर्ष 2014 की प्रथम तिमाही में पूर्व की तीन तिमाहियों की तुलना में अधिक टैक्स एकत्र हुआ। दिल्ली में जब से हाउस टैक्स के स्वयं निर्धारण की प्रक्रिया शुरु हुई है, लगातार ज्यादा कर एकत्र हो रहा है। दरअसल, इंस्पेक्टर राज मंे टैक्स के हिस्से का पैसा सरकारी खजाने मंे कम, इंस्पेक्टरों की जेब में ज्यादा जाता है। स्पष्ट है कि नागरिक वाजिब टैक्स तो देना चाहते हैं, किंतु उसके बाद कोई परेशान करे; यह नहीं चाहते। रेहङी-पटरी वाला तक अपने ठिकाने की एवज् में पैसा देना चाहता है, कितु किसी की धौंस-पट्टी नहीं चाहता। उसका भी मन करता है कि उसका पक्का ठिकाना हो। एक छोटे से मकान-दुकान का सपना उसका हक भी है और बुनियादी जरूरत भी।

कहना न होगा कि दिल्ली जनादेश-2015 के संकेत और लक्ष्य.. दोनो ही बेहद बुनियादी और लोकतंत्र की परिभाषा के अनुरूप हैं। किंतु क्या महज् एक वोट के जरिए इन्हे हासिल करना संभव हैं ? नहीं! इसके लिए जनता को खुद को बदलना होगा। वस्तुस्थिति यह है कि आज हम इतने सुविधाभोगी हो गये हैं कि अपनी सुविधा के लिए आज हम खुद शॅार्टकट रास्ते तलाशते हैं। ’आउट आॅफ वे’ हासिल करना हम रुतबे की बात मानते हैं। जब तक यह चित्र नहीं बदलेगा, बदलाव का सपना अधूरा ही रहेगा।

जन-जन को समझना होगा कि नागरिक जागरूकता का असल मतलब, सिर्फ मतदान में भागीदारी नहीं भी होता। जरूरत, इससे आगे सार्वजनिक दायित्वों की पूर्ति में पूर्ण सहभागिता की है। अब वक्त आ गया है कि जहां सरकार और नागरिक.. दोनो ही भागीदारी और सहभागिता के बीच मौजूद बुनियादी फर्क को समझें। यह इसलिए भी जरूरी है, चूंकि हमारी सरकारें सरकारी योजनाओं के घोषित लाभार्थियों को लाभ देने की प्रक्रिया में समानता और संवेदना की गारंटी देने में असफल साबित हो रही हैं। निस्संदेह, इसका एक बङा कारण, सत्ताशीनों की प्राथमिकता पर लोकनीति की बजाय, राजनीति और राजनीतिक विभेद का होना है। 

योजनाओं के प्रति जनप्रतिनिधियों का गैरजवाबदेह और समाज का उदासीन रवैया, योजनाओं की नाकामयाब इससे भी बढा कारण है। समाज की उदासीनता तोङे बगैर सरकार, प्रशासन और जनप्रतिनिधियों को जवाबदेह नहीं बनाया जा सकता। बेलगाम भ्रष्टाचार इसी का परिणाम है। अतः बदलना तो जनता को भी होगा। आइये, बदलें।

यदि हम चाहते हैं कि हमारे द्वारा चुना उम्मीदवार, जनाकांक्षा के अनुरूप दायित्व-निर्वाह हेतु विवश हो, तो उसे पांच साल अकेला न छोङ दें। उसके साथ सतत्-सक्रिय संवाद तथा सहयोग बनायें। जनप्रतिनिधियों के बजट से क्रियान्वित होने वाले कार्यों पर तो न सिर्फ निगाह रखंे, बल्कि बजट से क्या काम होना है ? यह तय करने का काम मोहल्ला समितियां/ग्रामसभाओं को सौंपने के लिए जनप्रतिनिधियों को विवश करें। हमारे लिए बनी योजनाओं की हम खुद जानकारी रखें। उसमंे सभी संबंधित पक्षों की भूमिका को जानें। उनका सफल क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के लिए जनप्रतिनिधि व प्रशासन का सहयोग करें। उसके उपयोग-दुरुपयोग व प्रभावों की निगरानी रखें।

वर्तमान कालखण्ड, भारत में एक सक्षम जन निगरानी तंत्र की मांग कर रहा है। इस मांग की ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। अपने गांव-कस्बे, निगम क्षेत्र, विधानसभा, लोकसभा, नदी, जंगल अथवा किसी परियोजना विशेष को इकाई मानकर हम जन निगरानी तंत्र का विकास कर सकते हैं। जन निगरानी तंत्र की भूमिका पंच परमेश्वर सरीखी होती है। योजना को ठीक से जानना-पहचाना। उसके हर पहलू पर नजर रखना। लाभार्थियों को पहले से अवगत कराना। योजना में कमी है तो टोकना। उन्हें दूर करने के लिए मजबूर करना। योजना ठीक से लागू हो; इसमें अपनी भूमिका की तलाश कर उसका निर्वाह करना। योजना के दुश्मनों को दूर करना और कर्मनिष्ठ सहायकों को मदद देना; सम्मानित करना। समय-समय पर योजना की हकीकत को उजागर करना। योजना बजट की पाई-पाई का हिसाब लेना। ये जननिगरानी तंत्र के काम हो सकते हैं। 

ये काम अत्यंत जिम्मेदारी, सावधानी, कौशल व सातत्य की मांग करते हैं। कायदे से तो सरकारों को ही चाहिए कि वे जननिगरानी तंत्र के गठन, प्रशिक्षण, कौशल विकास, संवैधानिक मान्यता व हकदारी की पक्की व्यवस्था करें। दिल्ली में बैठी लोकसभा और विधानसभा चाहें तो शासकीय जन निगरानी तंत्र गठित करने की पहल कर सकती है। जन निगरानी तंत्र की आवाज सरकार में सुनी जाये; यह भरोसा सरकार, स्वयंसेवी जगत, मीडिया, अदालत.. सभी को मिलकर दिलाना चाहिए। जन निगरानी एक ऐसा औजार है, जो जहां एक ओर जनता में हकदारी का भाव जगायेगा, वहीं दूसरी ओर उसे जिम्मेदार भूमिका में भी लायेगा। इसी से जनता में योजनाओं व योजनाकारों कें प्रति विश्वास का भाव जाग्रत होगा। इसी से क्रियान्वयन ढांचा जवाबदेह बनाया जा सकेगा।

ऐसे बदलावों के लिए जनता को स्वयं पहल करनी होगी। जनाकांक्षाओं की पूर्ति और आत्म सम्मान हासिल करने के इस महायज्ञ में जनता को घृत, समिधा, अग्नि और पुरोहित.. सब कुछ खुद ही बनना पङेगा। सच मानिए, यदि जनता ऐसी जवाबदारी निभा सकी, तो हकदारी स्वतः आ जायेगी। जनता, जैसे-जैसे जवाबदेह होती जायेगी; लोकतंत्र, वैसे-वैसे अधिक विकसित और लोकहितैषी होता जायेगा। अभी तंत्र आगे है, लोक पीछे; तब लोक आगे होगा; तंत्र सहायक की भूमिका में। शासन-प्रशासन जनता की सुनने को मजबूर होंगे। भ्रष्टाचार पर स्वतः लगाम लग जायेगी। जन सहभागिता सुनिश्चित होने का मार्ग स्वतः खुल जायेगा। यह आदर्श स्थिति होगी। ’आप’ जैसी नई उम्र की पार्टी को मिले पल्ला झाङ जनसमर्थन की भांति, यह स्थिति अभी भले ही अकल्पनीय हो, किंतु हम बीज तो बो ही सकते हैं। आइये, बोयें।

सादर-साभार
अरुण तिवारी
 9868793799/011.22043335
146, सुंदर ब्लाॅक, शकरपुर, दिल्ली-92

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