राकेश दुबे@प्रतिदिन। मुख्य निर्वाचन आयुक्त एचएस ब्रह्मा ने दोहराया है कि उम्मीदवारों की तरह चुनाव में राजनीतिक दलों के भी खर्च की सीमा तय होनी चाहिए। वैसे यह सुझाव नया नहीं है, लंबे समय से पार्टियों के चुनावी खर्च की हद तय करने की मांग उठती रही है। करीब डेढ़ दशक से इससे संबंधित प्रस्ताव सरकार के पास लंबित है। इसमें बड़ी पार्टियों की कोई दिलचस्पी नहीं होने से सरकार 15 साल से विचार ही कर रही है।
दरअसल, चुनावी प्रतिद्वंद्विता में संसाधनों की घोर असमानता उन्हें रास आती है। पर यह हमारे लोकतंत्र के हित में नहीं है कि दलों के चुनावी खर्च पर कोई अंकुश न हो। प्रत्याशियों के खर्च की सीमा निर्धारित है, लेकिन पार्टियों के चुनावी व्यय की कोई सीमा न होने से प्रत्याशियों के खर्च की हदबंदी भी बेमतलब होकर रह जाती है। दलों को आम चुनाव संपन्न होने के तीन महीने के भीतर अपने खर्च का लेखाजोखा निर्वाचन आयोग को देना पड़ता है। पार्टियां इसमें कई बार लेटलतीफी और आनाकानी करती हैं। वे समय से यह ब्योरा दें, तो भी उससे क्या फर्क पड़ता है, जब उन पर खर्च की कोई बंदिश नहीं है?
चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए पार्टियों के चुनावी व्यय की सीमा तय करना निहायत जरूरी है। हमारी चुनाव प्रणाली काफी हद तक ब्रिटेन से प्रेरित है। पर चुनाव खर्च के मामले में ब्रिटेन के एक प्रशंसनीय प्रावधान को हमने नहीं अपनाया है। वहां उम्मीदवारों के साथ-साथ पार्टियों के लिए भी प्रचार-व्यय की सीमा निर्धारित है। दलों के लिए असीमित प्रचार-खर्च की छूट रहने का बुरा असर नीतियों के निर्धारण और सरकार के वित्तीय फैसलों पर भी पड़ता है।
खर्च की होड़ दलों और राजनीतिकों को बड़े व्यावसायिक घरानों और धनी तबके की मदद का मोहताज बनाती है। फिर चुनाव के बाद इसकी कीमत चुकाई जाती है। इसलिए हैरत की बात नहीं कि चुनाव में भले आम लोगों की समस्याओं की चर्चा होती हो और गरीबों के प्रति हमदर्दी जताने की होड़ दिखती हो, चुनाव खत्म होने के बाद प्राथमिकताएं बदल जाती हैं।
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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