ग्वालियर। पूरे 6 साल चली सीआईडी जांच फैल हो गई है। जांच में यह तक पता नहीं लगाया जा सका कि पुलिस ने जिसे डाकू बताकर मार डाला था वो आखिर था कौन। अब इस फाइल को बंद करने की तैयारी चल रही है और साथ ही निर्दोषों को डाकू बताकर मार डालने वाले पुलिस अधिकारियों को हमेशा के लिए सुरक्षित कर देने की भी।
कहानी क्या है
2006 में पुलिस ने एक एनकाउंटर में कुख्यात रामबाबू गड़रिया गिरोह के डाकू राजू आदिवासी को मार गिराने का दावा किया था। उस पर 25000 रुपए का इनाम था। तालियां भी बजीं और इनाम भी मिला, लेकिन 2009 में राजू आदिवासी एक अन्य पुलिस थाने में गिरफ्तार हो गया। रहस्य से पर्दा उठा कि राजू आदिवासी तो जिंदा है और वो भी सरकारी रिकार्ड में, क्योंकि गिरफ्तार कर लिया गया है।
मीडिया का प्रेशर बना तो सीआईडी जांच के आदेश दे दिए गए। सवाल यह था कि यदि राजू आदिवासी जिंदा है तो फिर जो पुलिस की गोलियों का शिकार हुआ वो कौन था। ग्रामीणों ने दावा किया कि वो एक निर्दोष ग्रामीण तोता आदिवासी था। उसकी मां ने भी सामने आकर इसकी पुष्टि की परंतु डीएनए जांच के नाम पर सरकारी रिकार्ड में एक बार फिर यह साबित कर दिया गया कि मरने वाला निर्दोष तोता आदिवासी नहीं था। यह इसलिए किया गया क्योंकि यदि मृतक की पहचान तोता आदिवासी के रूप में हो जाती तो जिन पुलिस अधिकारियों को डाकू को मरने के एवज में इनाम मिला था, हत्या के आराप में जेल भेज दिया जाता।
सीआईडी की जांच चलती रही, चलती रही, चलती रही, पूरे 6 साल बीत गए। अब सीआईडी ने आईजी ग्वालियर को एक चिट्ठी लिखी है। जिसमें लिखा है कि पुलिस कर्मचारियों ने शव की शिनाख्त में लापरवाही बरती अत: उनके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।
सवाल अब भी वही है यदि मृतक की शिनाख्त नहीं हो पाई है तो फिर उसे निर्दोष नागरिक क्यों नहीं माना जा रहा और उन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ हत्या का मुकदमा क्यों नहीं चलाया जा रहा जिन्होंने उसे डाकू बताते हुए मार गिराया था। अब आरोपी पुलिस अधिकारियों को साबित करने दीजिए कि मरने वाला निर्दोष नहीं डाकू ही था, यदि था तो कौन था और उसकी भी डीएनए जांच हो जाने दीजिए। सिर्फ शिनाख्त के खिलाफ विभागीय कार्रवाई को न्याय तो नहीं कहा जा सकता।