अरुण तिवारी। हालांकि मैं गांधी जी को न ठीक से जानता हूं और न ही उनका अनुयायी हूं; किंतु सुश्री प्राची उवाच के बाद, मैं दो दिनों तक गांधी जी को पढता रहा। दो दिन के अध्ययन के बाद एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मेरी तरह प्राची, अरुंधति राॅय और काटजू साहब भी गांधी को ठीक से नहीं जानते; क्योंकि मैं आश्चर्य चकित हूं। मुझे लगने लगा है कि यदि मैं गांधी जी को जानने की प्रक्रिया को जारी रख सका, तो एक दिन मानने भी लगूंगा। जो जानता नहीं, वह मान कैसे सकता है ? और जो मानता नहीं, वह तर्क से परे कैसे हो सकता है ? उसके अनुयायी होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। खैर, मैं आभारी हूं प्राची, अरुंधति और काटजू साहब का, कि इन्होने मुझे गांधी के योगदान को जानने का एक माकूल मौका मुहैया कराया।
गांधी सदी पर उलटबयानी
गौर करने की बात है कि वर्ष-2015 वह वर्ष है, जिससे एक सदी पहले 9 जनवरी, 1915 को गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से वापस स्वदेश लौटे थे। एक तरह से 1915, भारत में गांधी युग के सूत्रपात का वर्ष था और यह वर्ष-2015, उसका शताब्दी वर्ष। गांधी सदी के इस पावन मौके पर आत्ममंथन की बजाय, भारत में गांधी के लिए गंदे बोल और उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे को शहीद घोषित करने की नापाक कोशिशें हो रही हैं। यह अनजाने में किया गया कृत्य नहीं है। ऐसे में हमारे पास दो मार्ग हैं: पहला, कि गांधी को गाली देने वालों की बात ही न करें; चुप्पी साध लें; दूसरा, चुप्पी तोङ दें। जसटिस काटजू ने गांधी जी को ’अंग्रेजों का एजेंट’ करार दिया और साध्वी प्राची ने ’अंग्रेजों का पिट्ठू’। जस्टिस काटजू के बयान पर जस्टिस राजेन्द्र सच्चर ने चुप्पी तोङी और उन्हे सीधे-सीधे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजंेडे को आगे बढाने वाला कह डाला। साध्वी प्राची के बयानों को चुप्पी टूटी तो सोशल मीडिया मंें इसे लेकर छिङी तर्कों की तकरार अभी भी जारी है।
इन्हे क्षमा कर दें
इसे देखते हुए महात्मा गांधी को गाली देने वालों के बारे मंे फिलहाल मैं इतना ही कह सकता हूं आप इन्हे क्षमा कर दें, क्योंकि ये गांधी जी के ठीक से नहीं जानते। इन्हे चाहिए कि ये सभी नरेन्द्र मोदी जी के स्वच्छ भारत: स्वस्थ भारत के नारे से प्रेरित हों। सच पूछें तो आज ऐसे लोगोें को ही गांधी जी की सबसे ज्यादा जरूरत है। कहना न होगा कि बहन प्राची ने जिन शब्दों में गांधी के योगदान को नकारने की कोशिश की और काटजू साहब ने जिस तर्कहीन तर्ज पर गांधी की देशभक्ति को कटघरे में खङा करने की; मुझे यह लिखने में कोई गुरेज नहीं कि दोनो ने क्रमशः अपने-अपने नाम के आगे लगे साध्वी और न्यायमूर्ति जैसे पवित्र शब्दों से ही परहेज साबित करने की कोशिश की है। राष्ट्रपिता पर आक्षेप लगाकर, अपनी राष्ट्रवादिता पर ही प्रश्न चिन्ह लगाया है। मौका देखकर गोरखपुर फिल्मोत्सव के दौरान अंरुधति राॅय ने भी गांधी जी को ’काॅरपोरेट प्रायोजित प्रथम एन जी ओ’ का तमगा दे डाला। इसमें कोई ताज्जुब भी नहीं; चूंकि अरुंधति तो स्वयं प्रचार में बने रहने के लिए अक्सर ऐसे बयानों के लिए ही जानी जाती हैं। राष्ट्र हित के लिए मदद का दायित्वबोध भारत की अच्छी महाजनी परंपरा का हिस्सा है। किंतु आजकल काॅरपोरेट मुनाफे के लिए एनजीओ और कारपोरेट के बीच तालमेल के जिस कालखण्ड और जिन परिस्थितियों मंे यह कहा गया है, इसका न भाव अच्छा है और न शब्दावली। आज गांधी जी जिंदा होते, तो सबसे पहले ऐसे लोगों की शुचिता और स्वास्थ्य सेवा करने में जुट जाते।
मंथन पर प्रतिबंध कहां ?
अरुंधति ने व्यक्तिगत अंधभक्ति को गलत ठहराया है। इस बारे मंे महात्मा गाध्ंाी का विचार भिन्न कहां है ? उन्हे समझना होगा कि महात्मा गांधी एक व्यक्ति न होेकर, एक विचार, व्यवहार और जीवन शैली का नाम है। गांधी प्रतीक है, सादगी, सत्य, अहिंसा तथा व्यवहार और विचार में साम्य का। जो गांधी, व्यक्तिवादिता से परहेज करने की स्वयं वकालत करता रहा हो, व्यक्तिगत अंधभक्ति करने वाले भला उनके अनुयायी कैसे हो सकते हैं ? गौर करने की बात है कि इस दुनिया में महान विचारक और भी बहुत हुए, किंतु महात्मा गांधी भिन्न इसीलिए थे कि उन्होनेे दूसरे से जो कुछ भी अपेक्षा की, उसे पहले अपने जीवन में लागू किया। गांधी विचारों पर चिंतन, मंथन, बहस और मानने, न मानने पर प्रतिबंध कहां हैं ?
इस दुनिया में महान विचारक और भी बहुत हुए, किंतु महात्मा गांधी भिन्न इसीलिए थे कि उन्होनेे दूसरे से जो कुछ भी अपेक्षा की, उसे पहले अपने जीवन में लागू किया। महात्मा गांधी की इसी खूबी ने उनके जन्म के 146 वर्षों बाद भी जीवित रखा है। हकीकत यही है जब तक दुनिया में झूठ और अनाचार रहेगा, गांधी जी, दुनिया के दिलों की कालिख साफ करते रहंेगे। उनका स्वच्छता अभियान जारी रहेगा। उन्हे मिटाना संभव नहीं होगा।
चेतना को नकारने का काम
महात्मा गांधी ने किसान को जगतपिता कहा-’’रे खेङूत तू खरे जगतनो तात गणायो।’’ ऐसे गांधी को नकारकर क्या राष्ट्र, किसानों के प्रति उस आस्था को नकारने को तैयार है जो सिर्फ महात्मा गांधी की नहीं, भारतीय संस्कृति की भी मौलिक आस्था है ? 1917 के चंपारन प्रकरण के बाद रवीन्द्र नाथ टैगोर ने ’महात्मा’ और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने ’बापू’ की उपनाम दिया। क्या गांधी को नकारना, रवीन्द्र नाथ टैगोर, नेताजी सुभाष को नकारना नहीं है ? मेरे ख्याल से गांधी के सूत और तकली को नकारना, तो अंतिम जन की उस पूरी चेतना को ही नकार देना है, कभी चरखा, जिसके उत्थान का औजार बनकर सबसे आगे दिखा।
गुरेज करने लायक नहीं गांधी का सपना
अपने सपनों के भारत का सपना संजोते वक्त गांधी लिखते हैं - ’’मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करुंगा, जिसमें गरीब से गरीब आदमी भी यह महसूस कर सके कि यह उसका देश है, जिसके निर्माण में उसका महत्व है। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करुंगा, जिसमें ऊंच और नीच का कोई भेद न हो और सब जातियां मिल-जुल कर रहती हों। ऐसे भारत में अस्पृश्यता व शराब तथा नशीली चीजों के अनिष्टों के लिए कोई स्थान न होगा। उसमें स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार होंगे। सारी दुनिया से हमारा सम्बन्ध शांति और भाई चारे का होगा।’’ क्या गांधी का यह सपना गुरेज करने लायक है ?
भिन्न नहीं गांधी और भारत का दर्शन शास़्त्र
गांधी दर्शन के बारे में साध्वी प्राची को एक और बात जानना जरूरी है कि गांधी दर्शन, हिंदू धर्म के मूल दर्शन से बहुत भिन्न नहीं। गांधी ने कई औरांे से सिर्फ भिन्न यह किया कि भारत के मौलिक ज्ञान और आस्था को कर्म मार्ग में उतार दिया। क्या गलत किया ? ऐसा करने वाले को आप अंग्रेजों का एजंेट कहेंगे या मूल भारतीय संस्कृति का वाहक ? आप तय करें।
गांधी से प्रेरित विश्व
’संयुक्त राष्ट्र महासभा’ जैसी दुनिया की सर्वाेच्च संस्था ने भारत जैसे गरीब राष्ट्र के राष्ट्रपिता के जन्म दिवस को ’अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ के रूप में प्रतिवर्ष मनाने का फैसला यूं ही नहीं ले लिया। यदि गांधी विचार में कहीं खोट होता, तो गांधी मार्ग पर चलने वाले नेल्सन मंडेला, आर्म बिशप डेसमंड टुटु और आंग संा सू की जैसे लोग आधुनिक विश्व के सर्वाेच्च सम्मानों से सम्मानित न किए जाते। गांधी टोपी वाले अन्ना के आंदोलन के ज्वार मंे आधुनिक युवा एक नहीं होता। कोई कैसे नकार सकता है कि दलितों को अधिकार दिलाने के लिए बाबा साहेब अंबेडकर का सत्याग्रह, विनोबा का भूदान, जेपी की संपूर्ण क्रांति, महाराष्ट्र के महाद शहर का पानी सत्याग्रह, नासिक का धर्म सत्याग्रह, चिपको आंदोलन, टिहरी विरोध में सुंदरलाल बहुगुणा का हिमालय बचाओ, मेधा का नर्मदा बचाओ, राजेन्द्र ंिसंह का यमुना सत्याग्रह, म. प्र. का जलसत्याग्रह, संत गोपालदास का गो अनशन, प्रो जी डी अगं्रवाल और स्वामी निगमानंद के गंगा अनशन, भू-अधिकार का ताजा एजेंडा, गांधी मार्ग पर चलकर ही चेतना और चुनौती का पर्याय बन सके।
यदि गांधी को कांग्रेस का मानने की भूल के कारण प्राची या काटजू साहब ने ऐसा कहा, तो भी उन्हे याद कर लेना चाहिए कि यह गांधी जी थे, जो मानते थे कि राष्ट्रीय कांग्रेस, सिर्फ हिंदुस्तान की आजादी हेतु साधन और सामथ्र्य जुटाने का साधन थी। आजादी के बाद एक वही थे, जो यह मानते हैं कि राष्ट्रीय कांग्रेस की उपयोगिता खत्म हुई। गांधी जी का सच और सत् यही है। यह बात और है कि सत्ता के लोभ में तत्कालीन कांग्रेसियों ने गांधी के उस सुझाव पर गौर नहीं किया। विकास की अंधी दौङ में दौङते हुए गौर हम आज भी नहीं कर रहे हैं।
रास्ता दिखाता गांधी विचार
’’मेरी समझ में राजनीतिक सत्ता अपने आप में साध्य नहीं है। वह जीवन के प्रत्येक विभाग में लोगों के लिए अपनी हालत सुधारने का साधन है।...राष्ट्रीय प्रतिनिधि यदि आत्मनियमन कर लें, तो फिर किसी प्रतिनिधित्व की आवश्यकता नहीं रह जाती।’’ जब गांधी यह कहते हैं या थोरो के उस कथन का उल्लेख करते हैं, जिसमें कहा गया कि जो सबसे कम शासन करे, वही सबसे उत्तम सरकार है, तो क्या आपको जातिवादी राजनीति, बढती मसल पावर.. मनीपावर जैसी सबसे चिंतित करने वाली चुनौतियों को उत्तर देने की ताकत स्पष्ट दिखाई नहीं देती ? यहां सबसे कम का तात्पर्य सबसे कम समय न होकर, सरकार में जनता को शासित करने की मंशा का सबसे न्यून होना है। मैं साफ देख रहा हूं कि गांधी के बुनियादी चिंतन को व्यवहार में उतारने मात्र से बलात्कार की उग्र होती प्रवृति से मुिक्त से लेकर वैश्विक नवसाम्राज्यवाद के पुराने चक्रव्यूह में फंस चुके भारत की आर्थिक आजादी तक स्वयंमेव सुरक्षित और सुनिश्चित हो जायेगी।
गंाधी जी शुद्ध स्वदेशी को परमार्थ की पराकाष्ठा मानते हुए एक ऐसी भावना के रूप में व्यक्त करते थे, जो हमें दूर को छोङकर अपने सीमावर्ती परिवेश का ही उपयोग और सेवा करना सीखाती है। गांधी जी कहते थे कि भारत की जनता की अधिकंाश गरीब का कारण यह है कि आर्थिक और औद्योगिक जीवन में हमने स्वदेशी के नियम को भंग किया। दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज हम फिर यही नीतिगत गलती करने जा रहे हैं। विकास और विनाश के बीच इस नीतिगत विवाद का, गरीब और अमीर के बीच विवाद में तब्दील हो जाना दुर्भाग्यपूर्ण भी है और चुनौतीपूर्ण भी। रास्ता दिखाता विचार, फिर वही गांधी ही है।
परिर्वतनकारी मोङ पर भारत
भारत, आज सचमुच एक परिवर्तनकारी मोङ पर खङा है। जहां एक और चुनौतियां हैं, वहीं दूसरी ओर आशायें। इस दुर्लभ मोङ पर खङे भारतवासी जहां एक ओर करवट लेने का एहसास करा रहे हैं; राष्ट्र बेताब दिख रहा है, बेहतरी और बदलाव के लिए; दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ लोग इसे कभी नाथूराम गोडसे मार्ग बनाकर, तो कभी मदर टेरेसा पर आक्षेप लगाकर, कभी सांई प्रकरण और कभी गांधी को गाली देने में गंवा रहे हैं। उकसावे और निरर्थक विवादों के इन प्रकरणों को देखकर कभी-कभी विश्वास ही नहीं होता कि भारत, 21 वीं सदी में है। ये ऐसे प्रकरण हैं, जिनसे भारत के सबसे कमजोर इंसान की जिंदगी में सुधार में कोई सहयोग नहीं हो सकता।
समस्या का समाधान व्यवस्था या राजनीति नहीं, पंचायतों तथा मोहल्ला समितियों के रूप में गठित बुनियादी लोक इकाई से लेकर हमारे निजी चरित्र में आई गिरावट में खोजने की जरूरत है। चरित्र निर्माण.. गांधी मार्ग का भी मूलाधार है और विवेकानंद द्वारा युवाशक्ति के आहृान् का भी। लोकतंत्र से बेहतर कोई तंत्र नहीं होता। सदाचारी होने पर यही नेता, अफसर और जनता... यही व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ में तब्दील हो जायेंगे। माता-पिता और शिक्षक.. मूलतः इन तीन पर चरित्र निर्माण का दायित्व है। हे राम!! बापू ने मृत्यु पूर्व यही कहा था। बेहतर हो कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और उनकी कृपा की को मूर्ति में ढूंढने वाले, उन्हे चरित्र निर्माण की दायित्व पूर्ति मंे ढूंढे। यह गांधी दर्शन भी है और भारत का सदियों के अनुभवों पर जांचा-परखा राष्ट्र दर्शन भी।