राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत की राजनीति में सारे नेता कभी न कभी मीडिया पर नासमझी का आरोप लगा चुके है, ऐसा वे इसलिए करते हैं कि उनमें अपनी गलती को स्वीकारने कि हिम्मत नहीं है| कुछ तो इससे भी एक कदम आगे बढ़कर अपने साथ जुडे असहिष्णु तत्वों की बढ़ती आक्रामकता को बढ़ावा देकर मीडिया पर हमला तक करा देते हैं| तमिलनाडू में एक समाचार अभिकरण पर फेंका गया बम इसका उदहारण है| फ्रांस में कुछ समय पहले कार्टून पत्रिका 'शार्ली एब्दो' पर हुए हमले से इस हमले की समानता रोंगटे खड़े कर देती है।
मामला एक ऐसी बहस से जुड़ा है जो उस टीवी चैनल पर चलाई जाने वाली थी। बहस का मुद्दा यह था कि आज की महिलाओं के लिए मंगलसूत्र पहनना जरूरी होना चाहिए या नहीं। अगर मुद्दे को सिर्फ तमिलनाडु के ही संदर्भ में देखें तो भी ताली (मंगलसूत्र) का उल्लेख प्राचीन साहित्य में शादी के प्रतीक के रूप में नहीं, बल्कि बच्चों के पांवों में पहनाए जाने वाले पंचधातु के आभूषण के रूप में मिलता है। आगे चलकर कुछ कविताओं में ऐसे वीर पुरुषों का जिक्र मिलता है जो बाघ के शिकार के बाद उसका नाखून या दांत अपनी प्रेमिका के लिए उपहार के रूप में लाते थे। प्रेमिका बड़े गर्व से अमूल्य आभूषण के रूप में उसे अपने गले में पहना करती थी। साफ है कि अब न तो ऐसी वीरता प्रासंगिक रह गई है और न नाखून और दांतों के ये आभूषण लेकिन मंगलसूत्र तो एक बहाना है। शरद यादव और लालू यादव जैसे लोग तो गलती मानना तो दूर गलत बताने वाले को ही गलत ठहराने के आदी हो गये हैं|
पूरे देश में राजनीति के फलस्वरूप असहिष्णुता दर्शाने वाली घटनाओं में अच्छा-खासा इजाफा हाल के दिनों में हुआ है। सरकार को तो सावधानी बरतनी ही होगी, समाज को भी सोचना होगा कि अगर हमने अपने आसपास के असहिष्णु तत्वों को आक्रामक होने दिया तो इससे हमारा समाज और वीभत्स होगा, जिसकी कीमत हम सब को चुकानी पड़ेगी।
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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rakeshdubeyrsa@gmail.com
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