राकेश दुबे@प्रतिदिन। आर्थिक, सांस्कृतिक व सामाजिक कारणों से कई राज्यों में अराजकता, स्कूली व विश्वविद्यालयी शिक्षा पर पूरी तरह से हावी हो चुकी है, जबकि कुछ राज्य इससे काफी सीमा तक बचे हुए हैं। कुछ राज्यों की स्कूली परीक्षाओं में व्याप्त धांधली एक स्पष्ट वर्ग-विभाजन को अभिव्यक्त करती है।
उत्तर प्रदेश व बिहार के ज्यादातर सरकारी व निजी स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई की समुचित व्यवस्था अब नहीं है। मध्य प्रदेश तो एक कदम आगे है स्कूली शिक्षकों की भर्ती-व्यवस्था भ घोटाले से भरी है। वैसे भी अब , अध्यापकों का पढ़ाने-लिखाने से कोई रागात्मक संबंध नहीं है। उनकी कोई जवाबदेही निर्धारित नहीं की गई है कि वे कैसा और कितना पढ़ाते हैं? वर्ष 2014 के सर्वेक्षणों से पता चला है कि पांचवीं कक्षा के आधे विद्यार्थी दूसरी कक्षा की हिंदी की किताबें भी ठीक ढंग से नहीं पढ़ पाते हैं और छोटा-मोटा गुणा-भाग भी नहीं कर पाते।
क्या प्राथमिक और स्कूली शिक्षा पर हजारों करोड़ रुपये खर्च करने वाली राज्य सरकारें इन शिक्षकों व शिक्षा-विभाग के अधिकारियों की कोई जवाबदेही तय करेंगी या यह अराजकता यूं ही चलती रहेगी? और भी कई गंभीर सवाल हैं, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। क्या कोई भी राज्य अपनी स्कूली और उच्च शिक्षा को दुरुस्त किए बिना लाखों नौजवानों को रोजगार के साधन दिला सकता है? जब बिना पढ़े डिग्रियां बटोरने वाले ग्रामीण व कस्बाई नौजवानों को नौकरियां नहीं मिलेंगी, तो क्या वे अराजकता, अपराध और हिंसक गतिविधियों में संलग्न नहीं होंगे? जाहिर है, सामूहिक नकल सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है।
हमारी स्कूली शिक्षा और राज्य परीक्षा बोर्डो-परिषदों को भ्रष्ट नौकरशाही व राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करके ऐसे स्वायत्तशासी निकायों को सौंपने की जरूरत है, जो समर्पित शिक्षाविदों द्वारा संचालित किए जाएं। स्कूली शिक्षा में गुणात्मक सुधार सिर्फ सांगठनिक परिवर्तनों से संभव नहीं होगा। हिंदीभाषी राज्यों में स्कूली शिक्षा में भारी वित्तीय निवेश की जरूरत है, ताकि जरूरी बुनियादी आधुनिक सुविधाएं हर स्कूल को उपलब्ध हों। सूचना-प्रौद्योगिकी के व्यापक प्रयोग द्वारा पठन-पाठन की गुणवत्ता में पर्याप्त सुधार किए जा सकते हैं। शिक्षकों व विद्यार्थियों को लैपटॉप, टेबलेट देकर उस पारंपरिक शिक्षण प्रणाली को तिलांजलि दी जा सकती है, जो बच्चों को रट्टू तोता बनाती है। सूचना-प्रौद्योगिकी महंगी जरूर है, किंतु इन राज्यों के बच्चों को अन्य राज्यों के बच्चों के समकक्ष बनाने के लिए यह जरूरी है।
सामूहिक नकल के अभिशाप से मुक्ति के लिए शिक्षकों की शिक्षा व प्रशिक्षण में क्रांतिकारी बदलाव की जरूरत है। ग्रामीण स्कूलों में शहरों से आने वाले शिक्षकों की अनुपस्थिति की समस्या से निपटने के लिए स्थानीय युवाओं को शिक्षक बनाना होगा। स्थानीय निकायों को भी स्कूलों के प्रबंध में व्यापक अधिकार देने होंगे।
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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