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बोर्ड की परीक्षाएं या....?

गया। तीन मंजिला सेंटर पर खिड़कियों के सहारे मैट्रिक की परीक्षा में नकल कराने की तस्वीर कुछ खास बात नहीं। यह तो उस परीक्षा की तैयारी की एक झलक मात्र है जो सेंटर सेट करने से लेकर एटम बम तक का सफर तय करती है।

बिहार में मैट्रिक की परीक्षा तब से एक सामूहिक परीक्षा है जब इक्का दुक्का लोग हर गांव से पहली डिवीजन से पास होते थे। जब बड़े शहरों के बड़े कॉलेजों में नंबर से दाखिला लेने की ललक सब जगह फैली तो इसके लिए जुगाड़ भी शुरू हुए। इसके बाद जब मैट्रिक पास दुल्हन लाने में सीना चौड़ा होने लगा तो मैट्रिक की परीक्षा दिलाने का सामूहिक प्रयास और सशक्त हुआ। जाहिर है परीक्षा में नकल जिसे हम चोरी कहते हैं, लोक लाज की बात नहीं हो सकती।

इस सामूहिक प्रयास की शुरुआत पहले इस बात से होती थी और अब भी होती है कि सेंटर सेट किया जाए जहां आसानी से चोरी करायी जा सकती हो। इसके लिए बोर्ड में रेट भी तय होता था।

परीक्षा से एक रात पहले क्वेश्चन आउट कराना इस तैयारी का बेहद अहम मोड़ होता है। फिर इसका उपाय करना होता है कि आंसर कौन मास्साब बढ़िया बनाएंगे। थिन पेपर के जमाने में एक आंसर की छह-सात कॉपी होती थी। इस बात के लिए भी सेटिंग करनी होती थी कि किसे पहली-दूसरी कॉपी मिलती है। पुर्जा पहुंचाने के लिए मजबूत लड़के को खोजना, सिपाही जी के हाथ में पांच-दस थमा देना और फिर अंदर अपना आदमी सेट करना आसान नहीं होता है।

जिन्हें मास्साब नहीं मिले उनके लिए एक से एक नाम वाले गेस पेपर मिलते हैं। श्योर शॉट से एटम बम तक। साइज भी इस तरह की कि बांह वगैरह में भी आ जाए।

विषम परिस्थितियों में अपनी जगह किसी तेज भाई साहब को परीक्षा के लिए बैठाना थोड़ा खतरनाक होता है, लेकिन यह भी होता है। ज्यादा प्रतिभावन लेकिन थोड़ा डरकर चोरी कराने वाले आंसरशीट बाहर मंगा लेते हैं और जवाब लिखकर वापस कर देते हैं।

एग्जाम खत्म होने के बाद यह पता लगाना होता है कि कॉपी कहां गयी है। तमाम पाबंदियों के बाद वहां जाकर माक्र्स बढ़ाना भी सबके बस की बात नहीं होती। जो कुछ आलसी होती हैं या होते हैं वह कॉपी में पचास-सौ के नोट रख देते हैं कि मास्साब देख लीजिएगा। कुछ अपनी शादी होने या नहीं होने की जिम्मेदारी भी कॉपी जांचने वाले पर डाल देती हैं।

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