राकेश दुबे@प्रतिदिन। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कि बातों को लेकर कुछ नये सवाल खड़े हो रहे है| यह सवाल प्रतिपक्ष के नहीं सामान्य लोगों के हैं| नरेंद्र मोदी की बात वादा और व्यापर में आम आदमी को फेरफार दिख रहा है| जिस मसले पर देश भर में बहस चल रही है उस पर प्रधानमंत्री ने विस्तार से अपना पक्ष “मन की बात” में रखा है|
उन्होंने कहा कि 2013 का भूमि अधिग्रहण कानून हड़बड़ी में बना था। वे शायद यह भूल गये कि स्थायी संसदीय समिति ने एक साल तक विधेयक के स्वरूप पर विचार कर अपनी सिफारिशें दी थीं। उस समिति की अध्यक्ष भाजपा की ही सुमित्रा महाजन थीं, जो अब लोकसभा अध्यक्ष और भाजपा ने भी विधेयक का समर्थन किया था। उन्होंने जो नया विधेयक पेश किया है उससे कॉरपोरेट जगत गदगद है और किसान बुरी तरह चिंतित हैं।
प्रधानमंत्री मोदी का दावा है कि उनका विधेयक कॉरपोरेट के नहीं, किसानों के पक्ष में है। अगर यही बात है, तो किसान नाराज क्यों हैं? कुछ ऐसी सच्चाई जरूर है जिसे मोदी स्वीकार करना नहीं चाहते। २०१३ के भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने की मांग किसानों की तरफ से नहीं उठी थी। यह मांग कंपनियों की तरफ से आई थी। अपने संबोधन में मोदी ने कहा कि निजी क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहीत करते समय किसानों की सहमति ली जाएगी। पर पीपीपी मॉडल की परियोजनाओं की बाबत उन्होंने कुछ नहीं कहा, जबकि अधिग्रहण के लिए इसी तरीके का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल होना है।
इसी तरह परियोजनाओं के सामाजिक प्रभाव आकलन का प्रावधान हटाए जाने पर भी वे खामोश रहे, जो कि विवाद एक और प्रमुख विषय है। उन्होंने अधिग्रहण से किसान परिवारों को नौकरी मिलने का भरोसा दिलाया है। अपनी हर चुनावी रैली में वे बड़ी संख्या में नौकरियां मिलने का जो वादा दोहराते थे उसे पूरा करने की दिशा में दस महीनों में उनकी सरकार ने क्या किया है? भाजपा ने अपने घोषणापत्र में कहा था कि उसे सत्ता में आने का मौका मिला तो स्वामीमाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक यह सुनिश्चित किया जाएगा कि किसानों को उनकी उपज की लागत से डेढ़ गुना मूल्य मिले। लेकिन अब इस वादे को भाजपा ताक पर रख चुकी है।
लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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