हे! कृषिपुत्र, अति हो गई सिर्फ बयान मत दो

Bhopal Samachar
राकेश दुबे@प्रतिदिन। बेमौसम बरसात ने किसानों के घर उजाड़ दिए हैं| भोपाल जिले के गाँव मुगलिया कोट के मदन सिंह और शाजपुर जिले गाँव सारसी के पर्वत लाल अब नहीं लौटेंगे| इन जैसे कई और किसान है जो पिछले साल बर्बाद हुए थे, कोई मुआवजा उन्हें नहीं मिला था| इस बार बर्बादी ज्यादा है, पूरे राज्य का पेट भरने वाले और सरकार को “कृषिकर्मण” पुरुस्कार दिलाने वालों के घर साल भर चूल्हा जलना मुश्किल है| आपका प्रश्न होगा क्या करूं| उत्तर है|

इस स्थिति में पहली प्राथमिकता तो प्रभावित किसानों को सहायता देने की होनी चाहिए, मगर इसके साथ कुछ व्यापक सवालों पर भी ध्यान देना जरूरी है। पिछले एक दशक को देखें, तो इस तरह की बेमौसमी बारिश और ओलावृष्टि के कई उदाहरण मिल जाएंगे। मौसम के तेवर बदल रहे हैं। इस समय बड़ी चुनौती हमारे सामने यह है कि क्या इससे होने वाली क्षति को न्यूनतम करने के लिए हम असरदार कदम समय पर उठा सकते हैं? जलवायु परिवर्तन एक हकीकत है, और इस दौर में मौसम में कई बड़े बदलावों की संभावना है।

इसका सबसे अधिक असर किसानों और खेती पर पड़ेगा। पर सरकारी नीतियों में इस नई स्थिति का सामना करने के लिए जो बड़े बदलाव जरूरी हैं, वे अभी नजर नहीं आ रहे हैं। यह सच है कि इससे जुड़े कुछ अनुसंधान हो रहे हैं, कुछ योजनाएं भी बन रही हैं, लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। कुल मिलाकर, केंद्र और राज्य सरकारों के कृषि विभाग लगभग पहले जैसी स्थिति में ही चल रहे हैं। नई चुनौतियों का सामना करने के लिए जो व्यापक बदलाव चाहिए, वे अभी उनसे कोसों दूर हैं।

कृषि विकास और आपदा-प्रबंधन के बजट को पहले से कहीं अधिक बढ़ाना जरूरी है। फसल-बीमा जैसी योजनाओं के बारे में कई बार चर्चा हुई, पर इनका पर्याप्त विस्तार तभी होगा व बड़ी संख्या में किसानों को राहत तभी मिलेगी, जब पर्याप्त संसाधन उपलब्ध होंगे। नई और अप्रत्याशित स्थितियों को समझने व संभालने के लिए अधिक व्यापक स्तर पर ऐसे अनुसंधान की जरूरत है, जिनमें किसानों की भागीदारी हो सके। नई वैज्ञानिक जानकारियों और पारंपरिक ज्ञान, दोनों के मिलन से ऐसे समाधान प्राप्त हो सकते हैं, जिससे प्रतिकूल मौसम को झेलने की अधिक क्षमता रखने वाली खेती विकसित हो सके। जैव विविधता और बीजों की विविधता के बारे में परंपरागत ज्ञान से ऐसी कई फसलों और उनकी किस्मों की जानकारी मिल सकती है, जो प्रतिकूल मौसम को सहने में अधिक सक्षम हों। खेती के अलावा प्रतिकूल मौसम का सबसे अधिक असर सेहत पर पड़ता है।जलवायु बदलाव के दौर में ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं को मजबूत करना और जरूरी हो गया है।

बहस कि कोई गुंजाईश नहीं है| बातों से घाव नहीं भरेंगे| जिला मुख्यालयों में वातानुकूलित कमरों से अधिकारियों को मैदान में भेजिए और अपने नाम “कृषिपुत्र” विशेषण को सार्थक कीजिये|

लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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