इंदौर। जलसों और जुलूस में व्यस्त रहने वाले इस शहर में बीते रविवार जो कुछ हुआ, उसने तमाम कायदे कानून और आदेशों को ताक पर रख दिया। गाइड लाइन पुलिस-प्रशासन की अलमारियों में धूल खाती रही और जवाहर मार्ग पर जुलूस में फंसे 36 वर्षीय हार्डवेयर इंजीनियर विशाल मंडलोई की जान चली गई।
भीड़ के बीच 45 मिनट से फंसी विशाल की पत्नी रिचा मदद की गुहार लगाती रही और जयकारों और कोलाहल के बीच उसकी आवाज दब गई। मूल रूप से खरगोन का रहने वाला विशाल यहां नौकरी करता था। यह एक मात्र केस नहीं है। इस शहर में रोजाना जुलूस निकलते हैं और कोई न कोई ऐसे ही परेशान होता होगा। जिनकी बातें हमारे सामने नहीं आ पाती हैं।
क्लॉथ मार्केट अस्पताल के कर्मचारियों ने उठाया न्याय दिलाने का बीड़ा
क्लॉथ मार्केट अस्पताल के एक कर्मचारी ने फोन कर मीडिया को इस घटना की सूचना दी। उन्होंने कहा उस दिन हम लोगों ने एक ऐसे व्यक्ति को मौत के मुंह में जाते हुए देखा, जिसे समय पर अस्पताल पहुंचा दिया जाता तो आज जिंदा होता।
डॉक्टरों के विशाल को मृत घोषित करते ही उनकी पत्नी रिचा बेसुध हो गईं। उनकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। वह कभी खरगोन में रहने वाले परिजन को खबर करने के लिए मोबाइल तलाशती तो कभी 6 साल की बच्ची को सीने से लगाकर जोरों से रोने लगती। कभी वह डॉक्टरों की तरफ मुड़ती तो कभी कर्मचारियों से कहती कि मैं तो इन्हें समय पर घर से लेकर निकली थी, फिर ऐसा क्यों हुआ? हम सभी उसके गम में शामिल थे। अस्पताल में उस वक्त भयावह सन्नाटा पसरा हुआ था।
उस महिला का दर्द उसकी जुबानी...
रविवार का दिन था... सुबह के दस बज रहे थे। मैं मेरे पति विशाल और 6 साल की बेटी घूमने जाने की तैयारी कर रहे थे। इतने में विशाल को घबराहट होने लगी। सीने में हल्का दर्द महसूस हुआ। हम लोग ऑटो से क्लॉथ मार्केट अस्पताल के लिए रवाना हुए। स्नेहलतागंज से यहां तक की दूरी कोई 4-5 किमी दूर होगी। ऑटो वाला तेजी से हमें ले जा रहा था।
हम अस्पताल बमुश्किल एक किमी से भी कम दूरी पर होंगे कि गंगवाल बस स्टैंड की ओर से आ रहे जुलूस में फंस गए। इसमें हजारों की संख्या में महिला और पुरुष थे। इधर, मेरे पति की जान पर एक-एक मिनट भारी थी और उधर, जुलूस का सिरा खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। ड्राइवर ने ऑटो रिवर्स लेने की भी कोशिश की, लेकिन हम बुरी तरह फंस गए थे। विशाल की तड़प बढ़ती जा रही थी और मैं और मेरी बेटी असहाय उन्हें तड़तपा देख रहे थे। ...वक्त मेरे हाथों से जैसे सबकुछ छीनकर ले जा रहा था।
आखिरकार मैं ऑटो से उतरकर मदद के लिए गुहार लगाने लगी, लेकिन मेरी आवाज जुलूस और जयकारों के बीच दब गई। लगभग 45 मिनट बाद किसी तरह भीड़ छटी तो हम किसी तरह अस्पताल पहुंचे। तब तक विशाल की सांसें उखड़ने लगी थीं। डॉक्टरों ने बहुत कोशिश की, लेकिन विशाल को नहीं बचा पाए। (जैसा रिचा मंडलोई ने बताया)
आधा घंटा पहले आ जाते तो बच जाती जान
विशाल को गंभीर अटैक आया था। उन्हें अस्पताल लाने में देरी हुई। वे आधा घंटा भी जल्दी आ जाते तो हम उन्हें बचा लेते। हमने बेहतर प्रयास किए, लेकिन सफलता नहीं मिली।
डॉ.अमजद खान
आईसीयू के ड्यूटी डॉक्टर