राकेश दुबे@प्रतिदिन। अशोक खेमका के तबादले से कुछ विशेष प्रश्न उपस्थित होते हैं| प्रश्न देश में चल रही वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था, उसे मिले राजनीतिक संरक्षण और परिणाम स्वरूप उत्पन्न भ्रष्टाचार से जुड़ते हैं| यहाँ अशोक खेमका के ईमानदारी पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं है| लेकिन सब खेमका नहीं हैं और शायद हो भी नहीं सकते| अशोक खेमका के मामले से एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि मलाईदार पोस्टिंग को इनाम और दूसरे विभाग में पदस्थापना को सज़ा क्यों माना जाता है? प्रश्न उस प्रधानमंत्री के कार्यकाल में उपस्थित हुआ है जो रिश्वत के मामले में कहते हैं कि “न खाऊंगा और न खाने दूंगा”|
चाहे सरकार केंद्र की हो या राज्य की सब जानते हैं कि कुछ विभाग ऐसे हैं जो सत्ता और प्रतिपक्ष के राजनैतिक कार्यालयों का खर्च उठाते हैं| कुछ राज्यों के परिवहन और आबकारी विभागों को तो प्रतिमाह इस दो नम्बर की कमाई का लक्ष्य दिया जाता है| मध्यप्रदेश में तो परिवहन विभाग की एक निरीक्षक इस प्रकार की अवैध राशि का परिवहन करते हुए गिरफ्तार की गई थी| इसके बाद भी इस विभाग में आने जाने के लिए नीचे से उपर तक बोली लगती है|
इसी प्रकार अन्य विभागों में भी ऐसा ही कुछ होता है, पदस्थापना करने या कराने के पीछे उद्देश्य कार्य या विषय में रूचि के स्थान पर पद की गरिमा का चाहा या अनचाहा दोहन होता जा रहा है| किसी भी राजनीतिक दल को यह आपत्ति करने का कोई अर्थ नहीं है किस अधिकारी की पदस्थापना कहाँ हो?
अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के मामले तो यह प्रश्न उठाना निश्चित ही एक गलत संदेश देता है| अधिकरियों पर इस दल या उस दल का होने का ठप्पा भी लगता है|
अधिकारियों को अपनी पदस्थापना पर ईमानदारी से कार्य न करने की प्रेरणा भी ऐसे ही करतबों से मिलती है| यह सब बंद होना चाहिए देश के हित में| अधिकरियों को अपने साथ होने की ज्यादती की शिकायत करना चाहिए पदस्थापना की नहीं|
खक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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