गिरीश बिल्लोरे। विश्व में अपाहिज आबादी के लिए जितने प्रयास किये जा रहे हैं उन सब को देख के लगता है कि वैश्विक समाज और सरकारें विकलांगता को उत्पादकता का भाग न मानकर व्ययभार मानतीं है। इस परिपेक्ष्य में अन्य वीकर सैगमेंट की अपेक्षा कम तरज़ीह दी जा रही है।
भारत उपमहाद्वीप में स्थिति सामाजिक एवम् पारिवारिक संरचना में धार्मिक दबावों के चलते इस वीकर सैगमेंट को सामाजिक तौर पर नकारा तो नहीं जाता पर पारिवारिक महत्व भी उतना नहीं है जितना कि सर्वांग सदस्य को है।
सरकार की भूमिका
अपाहिज जीवन के लिए सरकारी स्तर पर दी जाने वाली सुविधा में पुनर्विचारण की ज़रुरत है। हालिया प्राप्त हो रही खबरों से स्पष्ट हो रहा है कि इस वर्ग के लोगों को मेडिकल प्रमाण पत्र प्राप्त करना सहज नहीं। इस बात की पुष्टि किसी भी सरकारी अस्पताल के बोर्ड के कामकाज से लगाईं जा सकती है। सरकार के संज्ञान में कमोबेश ये बिंदु अवश्य ही होगा कि यहाँ भ्रष्टाचार गहरी जड़ें जमा चुका है।
सहकर्मियों का नजरिया
सहकर्मियों का नज़रिया बेहद अजीब सा हुआ करता है। हालिया दिनों में इसके कई उदाहरण सामने आए हैं किन्तु इन पर त्वरित दंडात्मक कार्रवाई न करना उल्टे शिकायतकर्ता को प्रताड़ित करने का प्रयास करना बेहद मार्मिक स्थिति है। कमी का लाभ उठा कर झूठे मनगढ़ंत आरोप लगा कर प्रताड़ित करने में सहकर्मी भी पीछे नहीं रहते परंतु शिकायतों का विभागीय तोर पर निपटान न तो किया जा रहा है न ही इस कार्य में किसी की कोई रूचि ही है। विकलांगों के प्रति घृणाभाव वश किये गए मामलों की जांच हेतु स्वतंत्र राज्य के आयुक्त से कार्रवाई करानी चाहिए।
राज्य के विकलांग आयुक्त
महिला आयोग बाल आयोग अजा अजजा के सापेक्ष इस वर्ग के लिए आयोग की गतिविधियाँ तेज़ एवम् अधिक सुस्पष्ट कर देने की ज़रुरत है। यहाँ स्पष्ट करना चाहूँगा खुद को निर्दोष साबित करने का भार अधिक प्रभाव कारी हो न कि अपाहिज शिकायतकर्ता को अपराध साबित करने का अधिक भार हो।
गिरीश बिल्लोरे "मुकुल"
(स्वतंत्र लेखक हिंदी ब्लॉगर एवम् टिप्पणीकार)