श्याम चौरसिया/नरसिंहगढ। 1770 में प्रतापी, विधाप्रेमी, धार्मिक राजा पुरसराम परमार ने एतिहासिक किला निमार्ण के पहले किले के मुख्य द्धार के अंदर भव्य, दिव्य, कलात्मक मंदिर का निमार्ण कराया था। काल के प्रताप से ये मंदिर बिन भगवान का कर दिये जाने का संताप भौग रहा है। प्रतिमा हो तो पूजा हो। नतीजन मंदिर लावारिस पडा है। परिसर में श्वान सौते दिख जाते है। भूले भटके कोई आ जाता है।
पहाडी पर निर्मित किले और मंदिर के वैभव को दूर से देख कर सुखद अनुभूति होती है। मंदिर एक-दो सालों से नहीं बल्की बल्की 04 दशकों से भगवान विहीन है। पूजापा नहीं मिलने से खफा पुजारी ने भगवान की प्रतिमा अन्यत्र पदरा डाली। आस्था पर इतनी बडी चोट होने के बाबजूद न तो राज परिवार के वारिसों ने और न जनता ने कोई आपत्ति ली। मंदिर भले ही खंडहर नहीं हुआ हो पर वीरान जरूर हो गया। मंदिर परिसर में कुत्ते और शिखर पर बंदर अठखेलियां करते रहते है।
कभी राज परिवार के लोगों के अलावा आमजन भी मंदिर में नित्य दर्शन करने आया करते थे। मंदिर पूजा के नाम पर माफी कृषि भूमि भी है। जब तक महल में राजपरिवार रहा। तब तक मंदिर चकाचक रहा। राजपरिवार के महल त्यागते ही मंदिर की कीर्ति, आभा, भक्ति, आस्था, श्रद्धा को ग्रहण लग गया। भूले भटके कोई व्यक्ति किला दर्शन के लिए जाता है। लालचियों, पुरातत्व विरासत के दुश्मनों ने सारे किले को खंडहर में बदल डाला। खजाने के लोभ में किले की हर दीवार और छत को खौद दिया। शीषम के कलात्मक खिडकी, दरवाजे, टाईल्सें निकाल ले गए। इतना सब कुछ होने के बाबजूद किले की बुलंदगी इतिहास और परमारों केे शौर्य को अवश्य ताजा करती आ रही है।