राकेश दुबे@प्रतिदिन। यूरो जोन के ग्रीस की परस्थितियों से विश्व की मौद्रिक भविष्यवाणी और विशेषकर भारत की भविष्यवाणी करना ठीक नहीं है। यह कहना तो और भी ठीक नहीं है, की दुनिया को 1929-30 की मंदी का सामना करना पड़ेगा। 2015 का मानसून भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में अगले वित्त वर्ष पर प्रभावकारी हो सकता है पर वह भारत की कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था को चौपट नहीं कर सकेगा, ऐसी भारत में आम धारणा है| भारत के समाज और रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का अनुमान उल्टबांसी सा प्रतीत होता है। अकाल काल में भी भारत ने जय किसान कहा था और अब तो सारी राज्य और केंद्र सरकारे जय-जय किसान करने पर जोर लगा रही हैं।
इस बात को गले उतारना एकबारगी किसी के लिए भी मुश्किल हो रहा है कि अभी दुनिया के मौद्रिक रवैये में 1929-30 वाली महामंदी की अनुगूंज सुनाई पड़ रही है। दरअसल, महामंदी की बात अब इतनी पुरानी हो चुकी है कि उसका संदर्भ समझना आम लोगों के लिए तो मुश्किल है। स्थापित अर्थशास्त्री भी इसका इस्तेमाल अक्सर डराने के लिए करते हैं। क्या विश्व अर्थव्यवस्था में सचमुच ऐसा कुछ घटित हो रहा है, जिसे रोका नहीं गया तो दुनिया का समूचा वित्तीय ढांचा ही ध्वस्त हो सकता है?
हर देश अपनी ब्याज दर को कम से कम रखने की कोशिश में है। दुनिया की तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं अमेरिका, यूरोप और जापान में यह लगातार जीरो के आसपास बनी हुई है। इसका मकसद अपने उद्यमियों और ग्राहकों को सस्ता से सस्ता कर्ज मुहैया कराना है, ताकि अर्थव्यवस्था में रफ्तार बनी रहे। साथ ही अपनी मुद्रा की कीमत कम से कम रखना है, ताकि अपना सामान विदेशी बाजारों में सस्ता से सस्ता जाए और बाहरी सामान अपने यहां महंगा से महंगा होकर बिके।
पहले घरेलू संकट शुरू होते ही कस्टम ड्यूटी बढ़ाकर अर्थव्यवस्था के इर्द-गिर्द बाड़ सी लगाने की कोशिश की जाती थी। जी-20 जैसी कोशिशों से इस बार वैसा तो नहीं हो रहा है, लेकिन सस्ती मुद्रा की नीति के जरिये हर कोई अपने चारो ओर एक अदृश्य बाड़ लगाने में जरूर जुटा है। यही वजह है कि आज सिर्फ भारत का नहीं, लगभग हर देश का निर्यात नीचे जा रहा है। इसका एक और बुरा पहलू यह है कि हर जगह ब्याज दरें इतनी कम हैं कि बचत में लोगों की दिलचस्पी नहीं बन पा रही है। जहां तक सवाल खरीद-फरोख्त का है तो लोग बड़ी खरीदारियां इस उम्मीद में टाल रहे हैं कि आगे ब्याज दरें और नीचे जाएंगी, महंगे सामान थोड़े और सस्ते होंगे। ये सब मंदी के अनिवार्य लक्षण तो नहीं हैं, लेकिन जैसा रघुराम राजन का कहना है, 'खेल के नियम स्पष्ट होने चाहिए।' यानी ब्याज दरों का चढ़ना-उतरना तात्कालिक फायदों को ध्यान में रखकर नहीं, दूरगामी और व्यापक समझदारी के तहत होना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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