राकेश दुबे@प्रतिदिन। पंद्रह अगस्त 2015 को देश के गरीबों 2022 तक तक सर पर छत होने का सपना दिखा दिया गया है। सपने देखने की हमारी आदत हो गई है। इसी दिन हमने अत्याचारी ब्रितानी हुकूमत के बाद आजादी का पहला सूरज देखा था। अब सपने देखते है हर साल। आजाद होने के बाद सोचा था। इसमें सांप्रदायिकता अतीत की चीज होगी, लेकिन दुर्भाग्य रहा कि हमेशा तुष्टिकरण होता रहा परिणाम स्वरूप अब देश में कई लकीरें खिंची दिखती हैं, और इसका कारण गरीबी है।
एक यक्ष प्रश्न नीति नियंताओं से है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने सालों बाद भी देश का एक बड़ा हिस्सा गरीब क्यों है? क्या इसके लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने प्रतिनिधि चुनकर एक समृद्ध देश का स्वप्न देखा? एक रिपोर्ट के अनुसार महज अठारह प्रतिशत आबादी के पास इक्कीसवीं सदी की मूलभूत सुविधाएं जैसे स्वच्छ पानी, सफाई और भोजन हैं जबकि अनेक योजनाएं सरकार जनहित में चला रही है! आज देश का एक बड़ा तबका शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली-पानी जैसी सुविधाओं से महरूम क्यों है? क्या यह उन महान सेनानियों का अपमान नहीं है जिन्होंने हमें आजाद कराने के लिए अपनी प्राणों की आहुति दे दी?
हम विकास का झुनझुना थमाने वाले राजनीति के खिलाड़ियों से जानना चाहते हैं कि आज भी देश की लगभग तैंतीस करोड़ आबादी गरीब क्यों है जबकि धनकुबेरों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है? इस तथाकथित कृषि प्रधान देश में अन्नदाताओं की हालत इस कदर खराब है कि वे आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की मानें तो अब तक देश के दो लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली है और इकतालीस फीसद किसान खेती छोड़ना चाहते हैं। ऐसे में हमारे सामने खाद्य सुरक्षा की जबरदस्त चुनौती होगी। महंगाई ने सबका गला दबा रखा है। आतंकवाद देश में दिनोंदिन जड़ें जमा रहा है, फिर भी आजादी का जश्न!
इस सबका जिम्मेदार कौन है? क्या फिर भी हम महान हैं? हम लोकतंत्र में रहते हैं और अगर लोकतंत्र में सभी को बराबर भागीदारी न मिले तो सच्चा जनतंत्र नहीं कहा जा सकता है। हालात सोचनीय हैं। यदि सिलसिला ऐसा ही रहा तो नीति-निर्माताओं से जनता का भरोसा भी उठ जाएगा। सिर्फ विश्वगुरु बनने की रट लगाने से भारत को विश्व का अगुआ नहीं बनाया जा सकता। उसके लिए सरकारों को योजनाओं की रस्मअदायगी से ऊपर उठ कर देश की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति और समस्याओं के निवारण पर ध्यान केंद्रित करना होगा।