राकेश दुबे@प्रतिदिन। शिक्षक दिवस आ रहा है। सारे नेता अपने को शिक्षक की भूमिका में प्रस्तुत करने को उतारू है। कोई भी यह सोचने और देखने को तैयार नहीं है कि विश्व गुरु खलने वाला भारत इस दशा में पहुंचा क्यों है ? देश में सरकारी स्कूलों की दुर्दशा से सब जानते हैं।
हाल ही में इसी मसले पर चिंता जताते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा कि जब तक जनप्रतिनिधियों, उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों और न्यायाधीशों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, तब तक इन स्कूलों की दशा नहीं सुधरेगी। चिंता स्वाभाविक भी है। आजादी के करीब सात दशक बाद तक हम सभी स्कूलों में मानक सुविधाएं नहीं दे सके हैं।
शौचालय बनाने की मुहिम अब चली है। पेयजल किल्लत, भवन, अन्य शिक्षण उपकरणों की दयनीय दशा यह बताती है कि यह क्षेत्र नीति-नियंताओं की किस स्तर की प्राथमिकता में शामिल है। इनको शायद इस बात की तनिक भी चिंता नहीं है कि यहीं से पढ़े बच्चे देश का भविष्य संवारेंगे।
स्कूली ही नहीं, उच्च शिक्षा की हालत भी जर्जर है। हालिया जारी 2015 अकेडमिक रैंकिंग ऑफ वल्र्ड यूनिवर्सिटीज में दुनिया के 500 विश्वविद्यालयों में भारत से केवल इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलूर ही शामिल हो सका है। वह भी एकदम तलहटी में। दिक्कत यह है कि हमें इस बात का कोई पछतावा नहीं है। तभी तो शिक्षा व्यवस्था कभी किसी राजनीतिक दल के प्रमुख एजेंडे में नहीं जगह बना पाती। जनप्रतिनिधियों का जैसे इससे कोई सरोकार ही नहीं हैं। रोजमर्रा की मुश्किलों से जूझता आम आदमी यहां तक सोच ही नहीं पाता है कि शिक्षा भविष्य के लिए कितनी जरूरी है। ऐसे में आम लोगों को शिक्षा की महत्ता के प्रति जागरूक करने और नीति-नियंताओं से भारत को फिर से विश्व गुरु बनाने की अपेक्षा आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।