राकेश दुबे@प्रतिदिन। देश की आबादी का 52 फीसद हिस्सा रोजी-रोटी के लिए आज भी कृषि क्षेत्र पर निर्भर है, मगर इस क्षेत्र का भारत की अर्थव्यवस्था में योगदान महज 13 प्रतिशत के आसपास रह गया है। भारतीय अर्थव्यवस्था के प्राविधिक आंकड़ों के मुताबिक वित्तवर्ष 2015 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) आधारित विकास दर 7.3 प्रतिशत रहेगी, मगर कृषि क्षेत्र की विकास दर महज 0.2 प्रतिशत रहने का अनुमान है।
होना तो यह चाहिए था की कृषि क्षेत्र पर टिकी अतिरिक्त आबादी को अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में खपाया जाये, लेकिन भारत में ऐसा नहीं हुआ है। लिहाजा, संकट बढ़ता जा रहा है और विस्फोट की सीमा तक पहुंच चुका है। बीते चार सौ सालों के दरम्यान आधुनिक विकास का जो मॉडल बना है, उसके अनुसार कृषि क्षेत्र की आबादी को पहले नगरीय क्षेत्रों में बसे उद्योग-धंधों में लगा कर कृषि और ग्रामीण क्षेत्रों का भार कम किया जाता है। भारतीय अर्थव्यवस्था ने बीच की कड़ी छोड़ कर सीधे तीसरी कड़ी यानी सेवा क्षेत्र की तरफ कदम बढ़ा रखे हैं।
गांव से शहर का यह संक्रमण दिशाहीन नीतियों के कारण और गहरा गया है। ग्रामीण इलाकों में रोजी-रोटी कमाने का परंपरागत पुराना ढांचा टूट गया और नया खाका तैयार नहीं है। दोनों तरफ संकट है, लेकिन सबसे ज्यादा दबाव के कारण कृषि क्षेत्र में यह साफ तौर पर दिखाई दे रहा है। कृषि क्षेत्र पर अधिक भार होने के कारण जोतों का आकार भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी कम होता जा रहा है।
जोतों के छोटे आकार के कारण (भारत में जोतों का औसत आकार 1.15 हेक्टेयर है और पचासी प्रतिशत से ज्यादा किसानों के पास दो हेक्टेयर से कम भूमि है) खेती में लागत भी नहीं निकल पाती। अधिकतर भारतीय फसलें प्रति हेक्टेयर उत्पादकता के पैमाने पर वैश्विक मानकों का आधा भी नहीं हैं। एक और गौरतलब बात यह है कि आधे से ज्यादा खेती वर्षा-आधारित क्षेत्र में होती है, जिसका उत्पादकता ग्राफ मानसून के साथ ऊपर-नीचे होता है। ये सारी समस्याएं मिल कर बड़ा रूप ले लेती हैं और कृषि संकट की आग में घी का काम करती हैं।