राकेश दुबे@प्रतिदिन। भाजपा ने भले ही मुज्जफरनगर दंगा रिपोर्ट को सिरे से नकार दिया हो परन्तु पिछले दंगों के निष्कर्ष पर नजर डालें तो ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि सांप्रदायिक दंगे ज्यादातर मौकों पर राजनीति प्रेरित ही होते हैं। फलत: आसानी से रोके जाने वाली घटनाएं भी सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले लेती हैं| ऐसे में यदि सरकार सतर्कता और सक्रियता दिखाए तो ऐसी हिंसा शुरू जरूर हो सकती है, किंतु लंबी नहीं खिंच सकती।
मुजफ्फरनगर दंगों पर काफी समय बाद काबू पाया जा सका था| उससे पहले भी उत्तर प्रदेश में जिस तरह सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ा था, उससे भी यह चर्चा आम थी कि राज्य में कुछ इस तरह के हालात जानबूझकर पैदा किए जा रहे हैं जिससे परस्पर विरोधी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो सके| इसके सुविचारित प्रयास भी हुए थे| जस्टिस सहाय की रिपोर्ट ने इस ओर ही इशारा किया है. इससे स्पष्ट है कि कैसे विभिन्न पार्टियों के नेताओं के हाथ इस सांप्रदायिक हिंसा में मारे गये बेगुनाहों के खून से सने हैं|
ऐसे में पार्टियां अपनी बेगुनाही का कुछ भी सबूत दें और रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठाएं, फिलहाल जनता उनके कथन पर यकीन करने वाली नहीं है| ऐसे में प्रदेश सरकार को जस्टिस सहाय की रिपोर्ट को जल्द सार्वजनिक करना चाहिए. प्रशासनिक विफलता के लिए जिम्मेदार पुलिस और प्रशासन को दंडित कर एक मिसाल पेश करनी चाहिए| इतना ही नहीं, रिपोर्ट में सत्ताधारी पार्टी के एक बड़े नेता की भूमिका पर भी सवाल उठाया गया है| सरकार उनके खिलाफ क्या करती हैं, इस पर भी लोगों की नजरें टिकी हैं. कहीं ऐसा न हो कि इस रिपोर्ट को भी अन्य रिपोट की तरह दाखिल दफ्तर कर दिया जाए| यह आशंका इसलिए क्योंकि भाजपा के साथ ही सत्तारूढ़ सपा सरकार पर भी परस्पर विरोधी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का आरोप लग चुका है|
हर सांप्रदायिक दंगे में नुकसान उनका होता है, जिन्हें दो जून की रोटी बमुश्किल नसीब होती है| यह भी देश में अनेक बार प्रमाणित हो चुका है कि इस दावानल की चिंगारियों को हवा कौन देता है ? सामान्य आदमी की समझ, भावनाओं के ज्वार में खो जाती है | इस रिपोर्ट आने के बाद राज्य और केंद्र दोनों की बुद्धिमानी की परीक्षा है।