राकेश दुबे@प्रतिदिन। आखिर हिमालय को बचाए कौन! आधुनिक युग में प्रकृति के संरक्षण के इस सिद्धांत का कोई ज्यादा मतलब नहीं रह गया है कि जो भोगे, वही बचाए। इसकी वजह यह है कि हिमालय का ज्यादा लाभ स्थानीय निवासी नहीं उठाते, और जिनके खाते में यह लाभ पहुंचता है, वे इसके संरक्षण में कोई भागीदारी नहीं करते। जैसे कि देश के वे हिस्से, जो हिमालय की नदियों से तरते हैं, वे परोक्ष या अपरोक्ष रूप में हिमालय को बचाने में अपनी कोई सक्रिय भागीदारी नहीं निभाते। अलबत्ता हिमालय में आ रही विपदाओं के बड़े दोषी वही हैं। उनकी जीवन शैली में अत्यधिक ऊर्जा व जल खपत ने ही धरती के ताप को बढ़ाया है। शृंखलाओं में बन रहे बांधों ने स्थानीय गांवों के लिए पानी-बिजली की तो कभी चिंता नहीं की, बल्कि देश को रोशन किया है।
ऐसे में हिमालय को बचाने के लिए हिमालयजनों की मदद जरूरी है। असल में, हिमालय को बचाने की पहल हिमालय में ही हो सकती है। मगर दिक्कत यह है कि लंबे समय से नकारे हुए स्थानीय लोग अब घर-गांव छोड़ने पर विवश हैं। एक के बाद एक नए कानून उनके अधिकारों को न सिर्फ कुचल दे रहा है, बल्कि उनकी स्थानीय आवश्यकताओं को भी पूरी तरह नजरंदाज करता है। यानी पानी-वन के ये रक्षक खुद हिमालय की संवेदनशीलता के शिकार हैं। जिसका परिणाम है कि हिमालय जनविहीन हो रहा है।
ऐसे में कहना अतिशयोक्ति नहीं कि आने वाले समय में हिमालय एक बंजर पहाड़ होगा। हिमालयी रक्षा अभियान को अगर गंभीरता से लेना है, तो यह जरूरी है कि इसे स्थानीय लोगों के जन-जीवन से जोड़कर देखा जाए। अब भी समय है कि हिमालयजनों को जोड़कर हिमालय की चिंता की जाए। इसके लिए जरूरी है कि स्थानीय संसाधनों पर आधारित रोजगार यहां के लोगों को मिले। अब भी समय है कि हिमालयी जनों को जोड़कर हिमालय की चिंता होनी चाहिए। वरना खाली होता हिमालय हमें और बड़ी चिंता में डाल देगा। हिमालय में भी जीवन है, जान है। उसे भी हमारी देखरेख की आवश्यकता है। उसे मात्र भोगने वाली वस्तु न समझा जाए। इसे नकारना अपने जीवन और अस्तित्व को संकट में डालना है |
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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