राकेश दुबे@प्रतिदिन। शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण के नतीजे उतने अच्छे नहीं निकले, जितने कि सरकारी नौकरियों के मामले में निकले। छह दशक से भी ज्यादा समय गुजर जाने के बावजूद उच्च शिक्षा में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के कोटे की सीटें भारी संख्या में खाली रह जाती हैं। न्यूनतम योग्यता का स्तर काफी कम कर देने के बावजूद पर्याप्त संख्या में लोग नहीं मिल पाते हैं। और जिन्हें प्रवेश मिलता है, उनमें भी बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने यानी ड्रॉपआउट की दर काफी ज्यादा है और स्पर्धा की दर काफी कम है। इसका कारण यह है कि उनकी स्कूली शिक्षा इतनी अच्छी नहीं है कि वह उन्हें उच्च शिक्षा के लिए तैयार कर सके। कुछ एक को छोड़कर ज्यादातर उच्च शिक्षा संस्थानों ने उन्हें इसके लिए तैयार करने की कोई गंभीर कोशिश भी नहीं की। आरक्षण के जरिये उच्च शिक्षा संस्थाओं में पहुंचने वाले ज्यादातर छात्र पहली पीढ़ी के विद्यार्थी होते हैं और वे दूसरे सामान्य छात्रों की बराबरी नहीं कर पाते।
समस्या इसलिए भी आती है कि आरक्षण सिर्फ प्रवेश के लिए होता है, आगे के लिए नहीं। फिर हर स्तर पर आरक्षण देना समाधान भी नहीं है, यह समस्या को बढ़ा भी सकता है। इसका बेहतर तरीका है कि उन्हें काम के साथ ही प्रशिक्षण दिया जाए, लेकिन आमतौर पर इसकी कोशिश नहीं होती। धीरे-धीरे एक समस्या और भी खड़ी होने लगी है कि आरक्षण का फायदा दलितों-आदिवासियों के कुछ प्रभावशाली तबकों तक सीमित हो गया है। आरक्षण का फायदा चुनींदा परिवारों की अगली पीढि़यों तक ही पहुंच रहा है।
एक बहुत छोटे-से तबके का सकारात्मक कदम पर एकाधिकार हो गया, जबकि एक बहुत बड़ा तबका इससे बाहर रह गया है। यह समस्या पिछड़ी जातियों को आरक्षण मिलने के बाद ज्यादा स्पष्ट रूप में उजागर हुई है। कई राज्यों में पिछड़ी जातियां सत्ता में हैं और कुछ मामलों में तो आर्थिक तौर पर संपन्न भी हैं। इन्हीं पिछड़ी जातियों में कुछ को मलाईदार परत भी कहा जाता है, जिन्हें आरक्षण का सबसे ज्यादा फायदा मिल रहा है।
यह सब बताता है कि आरक्षण के प्रावधान के बावजूद बहुत सारी ऐसी जातियां अब भी उसका फायदा उठाने से दूर हैं, जिनके लिए वास्तव में यह प्रावधान बना था। यानी आरक्षण में सबके लिए बराबर अवसर की बजाय कुछ के लिए संरक्षण की प्रवृत्ति ज्यादा दिख रही है। यही वजह है कि ६५ साल बीत जाने के बावजूद दलितों और आदिवासियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा इससे बाहर रह गया है। अगर हमें उनके लिए रास्ता बनाना है, तो यह काम स्कूली शिक्षा से ही हो सकेगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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