राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत की शिक्षा व्यवस्था में जो न हो सो कम है। मोदी सरकार के बनने के कुछ ही समय बाद गुजरात के सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम में एक पुस्तक को शामिल किया गया, जिसमें हिंदू धर्म व संस्कृति को केन्द्रित कर कई विवादास्पद बातें लिखी थीं। फिर राजस्थान में अकबर महान बरक्स महाराणा प्रताप महान का शैक्षणिक विवाद खड़ा हुआ। इसी तरह महान व्यक्तियों की सूची में आसाराम को शामिल किया गया, जबकि वो जेल में सजा काट रहा है।
2012 में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) की एक किताब में लिखे इस कथन पर बवाल मच गया था कि मांस खाने वाले लोग भरोसे के लायक नहीं होते हैं। वे झूठ बोलते हैं, वादा तोड़ते हैं, बेईमान होते हैं और गंदे शब्द बोलते हैं। उनके बारे में यह भी लिखा गया था कि ऐसे लोग चोरी करते हैं, लड़ते हैं, हिंसक होते हैं और सेक्स अपराधों को अंजाम देते हैं। छत्तीसगढ़ में दसवींके छात्रों को पढ़ाया जा रहा है कि देश में बढ़ती बेरोजगारी के कई कारणों में एक कारण है महिलाओं का कामकाजी होना। राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद की ओर से प्रकाशित दसवीं के बच्चों के लिए अनिवार्य सामाजिक विज्ञान की किताब में आर्थिक समस्याएं एवं चुनौतियां इस पाठ में साफ-साफ लिखा है कि स्वतंत्रता से पूर्व बहुत कम महिलाएं नौकरी करती थीं। लेकिन आज सभी क्षेत्रों में महिलाएं नौकरी करने लगी हैं, जिससे पुरुषों में बेरोजगारी का अनुपात बढ़ा है।
इन पंक्तियों का गंभीरता से संज्ञान लेते हुए जशपुर के कांसाबेल इलाके की शिक्षिका सौम्या गर्ग ने इसकी शिकायत राज्य महिला आयोग से की। हालांकि अब तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। महिलाओं को लेकर जो संकीर्ण मानसिकता समाज के बड़े हिस्से में व्याप्त है, उसकी झलक इस पाठ में नजर आती है। यह तथ्यात्मक भूल से, असावधानी से, तकनीकी त्रुटि से छपी सामग्री नहींहै। बल्कि साफ नजर आता है कि पाठ लिखने वालों की सोच कितनी संकीर्ण है। एक ओर केंद्र सरकार बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का राग आलाप रही है और दूसरी ओर बच्चों को यह पढ़ाया जा रहा है कि महिलाओं के नौकरी करने से पुरुष बेरोजगार हो रहे हैं। लड़की को पढ़-लिखकर क्या करना है, उसे बाद में अपना ससुराल संभालना है, इस सोच के कारण ही स्कूल में लड़कियों का दाखिला कम होने या कुछ कक्षाएं पढ़ाकर निकाल लेने की प्रवृत्ति बनी हुई है। नयी पीढ़ी भी इसी सोच से शिक्षित होगी तो नारी शिक्षा का जो सपना रमाबाई, सावित्री बाई फुले आदि ने देखा था, वो कभी पूरा ही नहीं होगा। राज्य सरकार द्वारा प्रकाशित पुस्तके हों या केंद्र सरकार द्वारा, इनकी निष्पक्ष समीक्षा होनी चाहिए और समयानुसार बदलाव की दरकार हो, तो वह भी होना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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