यह हिंदी नहीं हिंदू सम्मेलन है

राजेश जोशी। दिक्कत तो इस सम्मेलन और इस सम्मेलन को करा रही सरकार की सोच और उसकी साहित्य-संस्कृति की अवधारणा से ही थी। हमारा पहला एतराज यह था कि विश्व हिंदी सम्मेलन का मकसद रहा है, हिंदी का प्रचार-प्रसार। यह प्रचार-प्रसार ऐसे राज्य या देश में किया जाता है, जहां हिंदी नहीं बोली जाती रही हो। अभी तक यही सोच रही है, ऐसे में भोपाल जैसे हिंदी भाषी शहर में इस सम्मेलन को करने का कोई औचित्य नहीं था।

दूसरा, केंद्र सरकार और राज्य कह रही है कि यह साहित्य सम्मेलन नहीं है, इसलिए साहित्यकारों को नहीं बुलाया। क्या सरकार बता सकती है कि अगर वह इसे अ-साहित्य सम्मेलन के रूप में करना चाहती थी, तो उसने किन भाषाविदों को बुलाया। मेरी जानकारी में दुनिया में किसी भाषा का सम्मेलन या उस पर समग्र चर्चा उसके साहित्य को दरकिनार करके नहीं हुई होगी।

तीसरा, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जो तर्क दिया कि वह हिंदी भाषा को बाजार की भाषा बनाना चाहते हैं, इसलिए बाजार पर जोर है। हिंदी भाषा को बाजार के पास ले जाने के लिए सरकार प्रयास कर रही है। यह कितना मूर्खतापूर्ण तर्क है। भाषा बाजार के पास जाएगी या बाजार भाषा के पास आएगा। बाजार को 40 करोड़ लोगों की भाषा का इस्तेमाल करना होगा तो वह खुद आएगा। आ ही रहा है, नहीं क्या ? फिर यह तर्क कैसे दिया जा सकता है?

यह साहित्यकारों का सोचा समझा अपमान है 
यह उपेक्षा नहीं, सोचे-समझे ढंग से किया गया अपमान है। आप देखिए, विदेश राज्य मंत्री वी.के. सिंह ने कितने गहरे विद्वेष और हिकारत भरे स्वर में साहित्यकारों को दारूबाज, झगड़ालू और खाने-पीने वाला बताया। यह स्वर किनका हो सकता है?  सिर्फ और सिर्फ उनका जिन्हें लगता है कि तमाम दबावों के बावजूद साहित्यकार उनकी तुरही नहीं बजाएंगे। दरअसल, वे असली साहित्य और साहित्यकारों से डरते हैं। वी.के. सिंह के इस मूर्खतापूर्ण बयान से उनका और उनकी पार्टी भाजपा का असली चेहरा सामने आया है। भाजपा की तरफ झुके लोगों के लिए भी इस कदम का समर्थन करना मुश्किल हो रहा है।

वो साहित्यकारों से डरते हैं 
बिल्कुल। वे हमसे डरते हैं क्योंकि हम उनकी हिंसा, उनके शोषण के खिलाफ अपनी कलम चलाते हैं और अभी तक जनता उसे पढ़ती भी है। दूसरा, सत्ता हाथ में होने के बावजूद वे अपने ब्रांड के बड़े रचनाकार नहीं पैदा कर पाए। जहां तक दारू पीने की बात है तो सबसे अच्छी और सब्सिडाइजड दारू फौज में मिलती है और वहां छक कर पी भी जाती है। तो बकौल वी.के. सिंह क्या हम फौज को और किसी चीज के लिए नहीं, बस दारू के लिए जानें? यहां तक की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पक्ष में बोलकर हिंदी साहित्य को शर्मसार किया। उन्होंने कहा, यह हिंदी भाषा का सम्मेलन है, हिंदी साहित्य का नहीं। यानी, एक ही वार में उन्होंने भाषा को हिंदी साहित्य से अलग कर दिया। हिंदी के लेखक ने कौन सा ऐसा गुनाह किया, जो वे इस तरह से कर रहे हैं। उनका बस चले तो वे अंग्रेजी साहित्य से शेक्सपीयर, टीएस.इलियट को भी अलग कर सकते हैं। भाषा के साथ जितनी बेहूदगी वे कर सकते हैं, कर रहे हैं। हिंदी भाषा को हिंदू भाषा बनाने की दिशा में ही ये सब हो रहा है।

कौन हैं राजेश जोशी
समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं राजेश जोशी। उनकी कविता और वह खुद किसी भी अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध के एक प्रमुख स्वर के रूप में हमारे बिलकुल करीब खड़े नजर आते हैं। 1946 में मध्य प्रदेश के नरसिंहगढ़ में जन्मे राजेश जोशी साहित्य अकादमी से पुरस्कृत ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंने कविताओं के अलावा कहानियां, नाटक, आलोचना, लेख भी खूब लिखे हैं।

उनके चार कविता संग्रह-एक दिन बोलेंगे पेड़, मिट्टी का चेहरा, नेपथ्य में हंसी और दो पंक्तियों के बीच और लंबी कविता समरगाथा कई भाषाओं में अनुदित हुई है। एक कवि के रूप में गलत को पूरी निर्भीकता के साथ गलत कहने, और सही को पूरी निडरता के साथ सही कहने का हौसला रखते हैं।

उनका मानना है कि खतरनाक समय की शिनाख्त करने का काम भी रचना का होता है और ऐसा करने के लिए रचनाकार को मुखर होना पड़ता है। रचनाकार राजेश जोशी ऐसे हर मोर्चे पर बेहद सक्रिय हैं। अपनी सादगी के लिए मशहूर राजेश जोशी सत्ता से सीधे भिड़ने से गुरेज नहीं करते।

पिछले दिनों प्रगतिशील कन्नड विद्धान और विचारक एम.एम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में भोपाल में तमाम लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को जुटाने में भी वह सक्रिय रहे। कलबुर्गी की नृशंस हत्या के खिलाफ राजेश जोशी की पुरानी कविता-मारे जाएंगे- सोशल मीडिया और धरना प्रदर्शन में खूब इस्तेमाल की गई। हाल में भोपाल संपन्न 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन को वैचारिक स्तर पर कड़ी चुनौती देते हुए इसे हिंदू सम्मेलन कहकर उन्‍होंने इसकी कड़ी आलोचना की। 

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