दान की तरह मतदान भी स्वैच्छिक हो

Bhopal Samachar
राकेश दुबे@प्रतिदिन। गुजरात हाईकोर्ट ने सही कहा है कि मतदान के अधिकार को मतदान के कर्तव्य या मजबूरी में नहीं बदला जा सकता। मतदान के अधिकार में मतदान से अलग रहने का अधिकार भी शामिल है। जनप्रतिनिधित्व कानून समेत चुनाव संबंधी जितने भी कानून हैं, सबमें मतदान को स्वैच्छिक माना गया है। इसे उलटने का फैसला गुजरात सरकार ने क्यों किया? पर इसके लिए केवल आनंदीबेन पटेल सरकार दोषी नहीं है। इसकी पहल गुजरात ने 2009 में की, तब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे। पर राज्यपाल के एतराज के कारण संबंधित विधेयक अटका रहा।

तत्कालीन राज्यपाल कमला बेनीवाल ने स्थानीय प्राधिकार विधेयक, 2009 में अनिवार्य मतदान के प्रावधान को हटाने का सुझाव दिया था। पर गुजरात सरकार ने 2011 में फिर वैसा ही विधेयक विधानसभा से पारित कराया। उस पर न राज्यपाल की हिदायत का असर हुआ, न विपक्ष के विरोध और बहिष्कार का। राज्यपाल की मंजूरी के अभाव में विधेयक एक बार फिर लटक गया। मोदी के केंद्र की सत्ता में आने के बाद बनाए गए राज्यपाल ओपी कोहली ने विवादास्पद विधेयक को अपनी स्वीकृति दे दी। विधेयक में मतदान में शामिल न होने पर सौ रुपए जुर्माने का प्रावधान है। मतदान से गैर-हाजिर रहने को दंडनीय बनाने का निर्णय एक राज्य सरकार कैसे कर सकती है? पंचायतों-स्थानीय निकायों के चुनाव में मतदान के नियम-कायदे लोकसभा और विधानसभा के चुनाव से बुनियादी रूप से अलग कैसे हो सकते हैं? संसद और विधानसभाओं में भी, जहां तमाम विधायी फैसले लिए जाते हैं, मतदान की अनिवार्यता नहीं है।

अनिवार्य मतदान के पक्ष में गुजरात सरकार यह दलील देती रही कि इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सभी की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकेगी। पर यह बात तो लोकसभा और विधानसभा के चुनाव की बाबत भी कही जा सकती है। वहां मतदान की अनिवार्यता नहीं है, तो पंचायतों और स्थानीय निकायों के चुनावों में ही क्यों? अगर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत ही करना है, तो वे कदम क्यों नहीं उठाए जाते जो विधि आयोग से लेकर चुनाव सुधार पर समय-समय पर बनी समितियों ने सुझाए हैं। उनकी रिपोर्टें धूल फांक रही हैं। इन रिपोर्टों में मतदान के लिए सदन विह्प जरी करने पर भी सवाल उठाये गये है |

श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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