राकेश दुबे@प्रतिदिन। चुनाव नजदीक आते ही बिहार में साम्प्रदायिक तनाव बड जाता है| आंकड़ों के अनुसार बिहार में पिछले एक साल में हुए सांप्रदायिक तनावों में होने वाली एफ़आईआर की संख्या कई गुना बढ़ गई है। गया, मुज़फ़्फ़रपुर, बेतिया, सिवान, दरभंगा, पटना, सीतामढ़ी, नवादा, नालंदा और रोहतास ऐसे 10 ज़िले हैं जहां पिछले दो सालों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं में इज़ाफ़ा हुआ है। इनमें से कुछ ज़िलों में मुस्लिमों की जनसंख्या क़रीब 21 से 22 प्रतिशत है तो कुछ में 7 से 8 प्रतिशत। यह सब तब हो रहा है जब कुछ ही महीनों में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं। यही नहीं, विधानसभा चुनाव से पहले कई और राज्यों में भी सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं सामने आई हैं।
इसी तरह दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाक़े में दंगे हुए थे, वहीं बवाना, जोरबाग, ओखला और बाबरपुर इलाक़ें में तनाव की स्थिति बन गई थी। साथ ही दिल्ली के कई गिरिजाघरों पर भी हमले हुए थे। ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह सबकुछ दिल्ली में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हुआ था। इतना ही नहीं चुनाव से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी कुछ इलाक़ों में दंगे हुए थे। क्या इन सब में कोई समानता है?
क्या इससे राजनीतिक पार्टियों को धर्म के नाम पर अपने हक़ में वोट जुटाने में कोई मदद मिलती है? हालांकि यह सभी घटनाएं चुनाव से ठीक पहले हुईं लेकिन शायद ही ऐसा कोई ठोस सबूत हो जो सांप्रदायिक तनावों और चुनाव के बीच संबंध स्थापित कर सके। कुछ पार्टियां या ख़ासकर कुछ नेता ऐसे होते हैं जो धार्मिक भावनाओं के नाम पर वोटरों को संगठित करने की कोशिश करते हैं। लेकिन कई बार ऐसा भी होता है जब वोटरों के लिए धार्मिक विभाजन से बड़ा मुद्दा विकास का होता है। अख़बार में प्रकाशित सर्वे के अनुसार, सांप्रदायिकता या धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर शायद ही कोई वोट देता है। उनके लिए रोज़मर्रा के मामले जैसे महंगाई, रोज़गार और कई बार स्थानीय मुद्दे अहम होते हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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